कविता - नए शहर की वो पहली रात
गाँव की भुखमरी ने
जब किया था परेशान,
रोज़ खाली पेट सोना
पड़ती थी कोई आदत जान।
अनजान शहर से जब हुई मुलाकात,
याद है मुझको आज भी,
नए शहर की वो पहली रात।।
बिना टिकट रेल से जब मैं,
शहर के स्टेशन था पहुंचा,
टीटी साहब ने भी गरीबी पहचान,
मुझको था धर दबौचा,
किसी तरह मिन्नतों से फिर बनी बात,
याद है मुझको आज भी,
नए शहर की वो पहली रात।।
काम की तलाश में घर से बेघर हुआ,
पूरा घर-परिवार छोड़कर मैं दर-दर फिरा।
थी कड़ाके की सर्दी और भूख भी विकराल,
मैं किसान था उस रात बड़ा बदहाल,
याद है मुझको आज भी,
नए शहर की वो पहली रात।।
खेती छोड़ अब शहर में मज़दूरी कर रहा हूँ,
ज़्यादा तो नहीं पर थोड़ा ही सही,
अपने परिवारजन का पेट तो भर रहा हूँ।
खेत-खलिहानों की आज़ादी वाली,
फैक्ट्री की मजदूरी में कहां है बात,
तभी याद आती है मुझको आज भी,
नए शहर की वो पहली रात।।
- बोगल सृजन
जब किया था परेशान,
रोज़ खाली पेट सोना
पड़ती थी कोई आदत जान।
अनजान शहर से जब हुई मुलाकात,
याद है मुझको आज भी,
नए शहर की वो पहली रात।।
बिना टिकट रेल से जब मैं,
शहर के स्टेशन था पहुंचा,
टीटी साहब ने भी गरीबी पहचान,
मुझको था धर दबौचा,
किसी तरह मिन्नतों से फिर बनी बात,
याद है मुझको आज भी,
नए शहर की वो पहली रात।।
काम की तलाश में घर से बेघर हुआ,
पूरा घर-परिवार छोड़कर मैं दर-दर फिरा।
थी कड़ाके की सर्दी और भूख भी विकराल,
मैं किसान था उस रात बड़ा बदहाल,
याद है मुझको आज भी,
नए शहर की वो पहली रात।।
खेती छोड़ अब शहर में मज़दूरी कर रहा हूँ,
ज़्यादा तो नहीं पर थोड़ा ही सही,
अपने परिवारजन का पेट तो भर रहा हूँ।
खेत-खलिहानों की आज़ादी वाली,
फैक्ट्री की मजदूरी में कहां है बात,
तभी याद आती है मुझको आज भी,
नए शहर की वो पहली रात।।
- बोगल सृजन