Saturday, 13 May 2017

कविता - मेरे आलोचक

कविता

मेरे आलोचक 

शायद चल ही न पाता 
मैं आलस का मारा 
मुझे चलाया था जिसने 
मेरे आलोचक ही थे 

किसी कोने में रहता 
मैं धूल सना
मुझे झाड़ा गर किसी ने 
मेरे आलोचक ही थे 

वो गिर गिर के उठना 
संभलकर के चलना 
सिखाया किसी ने 
मेरे आलोचक ही थे 

गिरा बिस्तर पे रहता 
मैं सोया पड़ा यूँ 
खोया अपने में रहता 
मुझे औरों से क्या
तोड़ी तन्द्रा थी जिसने 
मेरे आलोचक ही थे 

 स्वर्ण दीप  

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