Tuesday 16 January 2018

मैं कैसे भूल जाऊँ

मैं कैसे भूल जाऊँ

कभी-कभी सोचता हूँ ऐसा मैं,
कि खाओ-पियो और ऐश करो की संस्कृति,
जो आज हावी है लगभग हर किसी पर
उसी पर चलते हुए मैं भी, 
न परवाह करूँ औरों के दुख-तकलीफों की,
व अपने घर-परिवार तक सीमित रहते हुए,
बस अपने ही काम से काम रखूँ।

कभी-कभी सोचता हूँ ऐसा मैं,
कि हाड़तोड़ परिश्रम के उपरांत भी
आधे पेट भोजन प्राप्त करते किसान को छोड़,
किसी महंगे रेस्तराँ में खाना खाने
व शॉपिंग मॉल्स से खरीददारी करने के बाद,
किसी गरीब को एक सिक्का देकर बस,
अपनी इंसानियत का फर्ज मैं भी निभा लूँ।

मगर इस निष्ठुरता से पेश आने की,
गवाही देता ही नहीं ज़मीर,
क्योंकि जिस तरह से एक बहशी,
स्वभाव से मजबूर वहशत फैलाना भूलता नहीं,
एक पक्षी मदमस्त नीले आकाश में,
पंख फैलाकर उड़ना भूलता नहीं,
तो इंसान होकर मैं इंसानियत कैसे भूल जाऊँ।

आजतक सुने हर एक धर्म-ग्रन्थ ने,
सन्त, ऋषि-मुनि या पीर-पैगम्बरों ने,
और हमारे माँ-बाप व शिक्षकों ने,
जो बचपन से हमें सिखाया है, 
हर इंसान से प्रेम व भाईचारे से रहना,
हर कमजोर और ज़रूरतमंद की मदद करना,
ये पढ़ी-पढ़ाई, रटी-रटाई बातें मैं कैसे भूल जाऊँ।

बोगल सृजन 

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