Sunday 30 April 2017

कविता - नफ़रतें क्यों है

ये नफ़रतें क्यों है 

घरों में भी हैं, बाहर भी हैं,
दिलों में भी हैं, ज़ाहिर भी हैं,
बेगाने तो बेगाने, अपनों में भी हैं
ज़ात में भी हैं, धर्म में भी हैं,
प्रांतों में भी हैं, मुल्कों में भी हैं,
ये नफ़रतें, ये नफ़रतें,
दिलों में फैली ये नफ़रतें क्यों हैं 

ये झगडे-फसाद और खून-खराबा,
ये तबाही के मंज़र और युद्धों का तमाशा,
घोले दिलों में ज़हर, करे नस्लें बर्बाद,
ये सब करवाती, नफ़रतें ही तो हैं 

गर नफरत का स्थान प्रेम ले पाए,
मानवता व भाईचारा, धर्म-ईमान हो जाए,
ये जातों  व पातों की,
प्रांतो व मुल्कों की दूरी मिट जाए
गर नफरत का स्थान प्रेम ले पाए 
गर नफरत का स्थान प्रेम ले पाए 

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