Sunday 20 May 2018

चलो_स्वयं_से_सत्य_बोलते_हैं


इस झूठ के मायाजाल में,
झूठ का आडम्बर उतारकर,
माना कठिन होगा जीना,
फिर भी
किसी अन्य से तो न सही,
चलो एक दिन स्वयं से सत्य बोलते हैं।।
माना सहज न होगा
झूठ के मकड़जाल से अलग होकर,
अपनी सत्यता से परिचित होना,
फिर भी प्रयास करके,
एक दिन स्वंय को तौलते हैं।
चलो स्वयं से सत्य बोलते हैं।।
माना तनिक कठिन होगा,
आईने के समक्ष खड़े होकर,
अंदर दबे झूठ व नफरतों के बारे सोचना,
फिर भी प्रयत्न करके एक दिन,
मन की गाँठें खोलते हैं,
चलो स्वयं से सत्य बोलते हैं।।
अपनी जात, धर्म या प्रदेश भूल,
मन में दबे सभी पूर्वाग्रहों को छोड़,
एकाग्र मन से,
अपने हृदय पर हाथ धरकर,
एक दिन न्यायोचित बोलते हैं।
चलो स्वयं से सत्य बोलते हैं।।

©स्वर्ण दीप बोगल

माँ_की_याद


चलो अच्छा है कि
कम से कम इक रोज़ ही सही,
अपनी-अपनी व्यस्ततायें छोड़कर,
माँ के निःस्वार्थ समर्पण को
याद करने का,
आज हम सभी को
क्या सुंदर मिला बहाना है।।

हमारे हर सुख-दुख में,
हमारे प्रेम में, हमारे गुस्से में,
जो चट्टान की तरह सदा खड़ी रही,
बिना किसी आशा के,
आज उसी माँ के हृदय से लगकर,
धन्यवाद करने का,
मिला हमें बहाना है।।

अपने ही जीवन की भागदौड़ में,
उनके आजीवन त्याग को भुलाकर,
जाने-अनजाने में,
आहत उन्हें करते हैं हम अक्सर,
आज ऐसे हर अपराध की
क्षमा माँगने का माँ से,
मिला हमें बहाना है।।

©स्वर्ण दीप बोगल

सच्चा सम्मान


न तो कभी घूँघट से मिलता है,
न कभी किसी पर्दे से,
न किसी चरण स्पर्श से मिलता है,
न किसी खोखले दुआ, सलाम,
या किसी अन्य अभिवादन भर से,
ये इज़्ज़त, आदर या सच्चा सम्मान,
किसी सम्बोधन या आडम्बर का मोहताज नहीं,
ये तो बस हृदय का कोमल अहसास है,
जो हमारे सम्पूर्ण जीवन के प्रयासों
व आचरण से प्रभावित होकर,
स्वत: ही अन्तर्मन से निकलता है।

© स्वर्ण दीप बोगल

दौड़ ज़िंदगी


कभी इक दूजे से आगे,
निकल भागने की होड़ है जिंदगी।
तो कभी हार-जीत की सोचे बिना,
बस गतिमान रहने की दौड़ है जिंदगी।
कभी साज-सज्जा व ऐशोआराम,
कभी ग़ुरबत व गरीबी का दौर भी ज़िन्दगी।
किसी दूजे के वास्ते भी कुछ कर लेना चाहिए,
चाहे कितनी भी दौड़ है जिंदगी।
जैसे भी मिले ज़िंदादिली से जी जाए,
बस दो साँसों की तो डोर है जिंदगी।

- स्वर्ण दीप बोगल

मायने

नयी खरीदने के पश्चात भी,
हमारी पुरानी वस्तुएं,
अक्सर पड़ी रहती हैं,
धूल से सनी, घर के कोनों में,
बिना किसी इस्तेमाल के,
बस बेकार जगह घेरती,
महीने दर महीने, साल दर साल।
बिना ये सोचे कि
पुराने जूते, चप्पल,
कपड़े जैसी ये तुच्छ वस्तुएं,
कम्पकम्पाती सर्दी में,
या झुलसाती गर्मी में,
चीथड़े पहनकर व नंगे पैर काम करते,
किसी गरीब के लिए,
क्या मायने रखती हैं।

©स्वर्ण दीप बोगल