Sunday 24 June 2018

कविता और किसान


बड़े-बड़े बुद्धिजीवियों के समक्ष,
किसी कवि सम्मेलन में,
या सुनहरे आवरण वाली
किसी पुस्तक में कैद कविताओं में,
वर्णन हो सकता है,
महीनों के हाड़तोड़ परिश्रम के बाद,
फसल के सही दाम की मांग के चलते,
धरना प्रदर्शन करते किसान का।।

कठिन परिश्रम के उपरांत भी,
गरीबी में जीने को मजबूर,
किसान का दर्द बयाँ करती,
कोई बुलन्द कविता भी,
श्रोताओं की तालियों की गड़गड़ाहट,
या वाह-वाही के जोश के बीच,
अपनी बुलन्दी खोकर,
क्यों फ़ीकी सी हो जाती।।

अथाह परिश्रम के पश्चात भी,
अपने बच्चों को,
अच्छा जीवन न दे पाने को मजबूर,
किसान पर लिखी कविताएं,
अपने कवि के लिये,
अच्छी तालियां व प्रशंसा तो बटोरती हैं,
मगर किसान की दशा सुधारने में,
ज़्यादा कुछ नहीं कर पाती।।

हमारे आलीशान डाइनिंग टेबल्स पर,
सजे स्वादिष्ट भोजन के लिए,
बदन झुलसाती गर्मी व कड़कड़ाती सर्दी में,
निरंतर परिश्रम करते किसान का
जीवन कलमबद्ध करते कवि को,
एक ताली या वाहवाही से अधिक,
सफल तब प्रतीत होता जब उसकी कविता,
एक भी किसान की दशा बदल पाती।।

© स्वर्ण दीप बोगल

Sunday 17 June 2018

कविता - दीवारों से बात करना


कभी-कभी अच्छा होता है,
दीवारों से बात करना,
क्योंकि वो धीरज से सुनती हैं,
हमारे दिल की हर छोटी-बड़ी बात,
बिना थके लगातार,
और बिना किसी बहाने के।

कभी अच्छा होता है,
दीवारों से बात करना,
क्योंकि वे हमारे हृदय में दबी,
बचकानी बातों का,
कोमल अहसासों का,
सर्रेआम मज़ाक तो नहीं बनाती।

हाँ, अच्छा ही होता है,
दीवारों से बात करना,
क्योंकि उनकी चुप्पी के बावजूद,
एक सच्चे मित्र की तरह,
वो हमें अपने दिल की आवाज़ को,
सुनने का मौका तो देती हैं।

माना एक मार्गदर्शक की तरह,
कोई राय नहीं दे सकती हमें,
फिर भी बहुत अच्छा है
दीवारों से बात करना,
क्योंकि वे हमे अपनी बुद्धि व विवेक से,
निर्णय लेने का अधिकार तो देती हैं।

©स्वर्ण दीप बोगल

कविता - घोड़े गधे सब एक हुए।


प्रतिभा का अब खेल नहीं,
जोड़-तोड़ सरेआम हुए,
परिश्रम, निष्ठा का मोल नहीं अब,
क्यों कोई लगन से काम करे,
चाटुकारों का डंका बजता,
वो करें खुशामद, आराम करें,
सरकारी तन्त्र की क्या बात करें,
निजी क्षेत्र के बुरे हाल हुए,
निष्ठावानों को कौन पूछता,
जब घोड़े गधे सब एक हुए।

©स्वर्ण दीप बोगल

कविता - कवितायें ज़िंदा रहती हैं


कभी राह में भूख को तरसते,
किसी बेसहारा बच्चे की पीड़ा,
कभी मेहनताने की आस में,
धूप में पसीना बहाता कोई मज़दूर,
तो कभी अच्छी फसल की उम्मीद लगाए,
हाड़तोड़ परिश्रम करता किसान,
प्रभावित कर सकते हैं किसी कवि को,
इन सब का दर्द बयां करने में,
कविताओं के माध्यम से ।

और ये कवितायें ज़िंदा रहती हैं,
तब भी जब उनके कवि को,
भूख से बिलखते बेसहारा बच्चों की
पीड़ा दिखाई नहीं पड़ती।

ये कवितायें ज़िंदा रहती हैं,
तब भी जब उनके कवि को,
किसी मज़दूर की हाड़तोड़ मेहनत से
कोई अंतर महसूस नहीं होता।

ये कवितायें ज़िंदा रहती हैं,
तब भी जब उनके कवि को,
महीनों के परिश्रम के बाद
अच्छी फसल न होने पर दम तोड़ते,
किसान का दर्द महसूस नहीं होता।

©स्वर्ण दीप बोगल

कविता - वो बचपन


बड़ा सुंदर था वो बचपन,
जब बुरे को बुरा
व अच्छे को अच्छा कहने में,
सोचना नहीं पड़ता था।
बड़ा सुंदर था वो बचपन,
जब किसी की गलत बात पर,
फटाक से उत्तर देने के लिए,
सामने वाला कौन है,
ये सोचना नहीं पड़ता था।
बड़े सुहाना था वो बचपन,
जब बिना किसी मानसिक घुटन के,
दिल के जज़्बात रखने में,
बेबाकी से अपनी बात करने में,
कोई फर्क न पड़ता था।
बहुत याद आता है वो बचपन,
जब किसी के झूठ के पुलन्दे को
एकदम नकारने में,
और सच का साथ देने में,
हमें एक पल भी न लगता था।

© स्वर्ण दीप बोगल

कविता - तपती दोपहर


नाज़ुक हम इतने हो चले हैं कि
घर से दफ्तर का सफर करने में भी
खुद को गर्मी में असहज पाते हैं।
ए• सी• या कूलर की ठंडी हवा में बैठ,
बदन झुलसाती तपती गर्मी को,
बस अक्सर कोसते नज़र आते हैं।
तपती धूप की एक किरण को भी
जब हम सहन नहीं कर पाते हैं,
तो फिर उसी चिलचिलाती धूप में,
परिश्रम करते किसान, मज़दूर
या किसी अन्य कामगर के दर्द को,
क्या हम सच में समझ पाते हैं।
माना लाख दम भरें हम,
किसानों व मज़दूरों के समक्ष,
अपनी पढ़ाई व रहन-सहन का,
मगर खेत में पसीने से तरबतर किसान,
या तपती गर्मी में तारकोल बिछाते मज़दूरों के समक्ष,
क्या हम कहीं टिक भी पाते हैं?
©स्वर्ण दीप बोगल