नाज़ुक हम इतने हो चले हैं कि
घर से दफ्तर का सफर करने में भी
खुद को गर्मी में असहज पाते हैं।
ए• सी• या कूलर की ठंडी हवा में बैठ,
बदन झुलसाती तपती गर्मी को,
बस अक्सर कोसते नज़र आते हैं।
घर से दफ्तर का सफर करने में भी
खुद को गर्मी में असहज पाते हैं।
ए• सी• या कूलर की ठंडी हवा में बैठ,
बदन झुलसाती तपती गर्मी को,
बस अक्सर कोसते नज़र आते हैं।
तपती धूप की एक किरण को भी
जब हम सहन नहीं कर पाते हैं,
तो फिर उसी चिलचिलाती धूप में,
परिश्रम करते किसान, मज़दूर
या किसी अन्य कामगर के दर्द को,
क्या हम सच में समझ पाते हैं।
जब हम सहन नहीं कर पाते हैं,
तो फिर उसी चिलचिलाती धूप में,
परिश्रम करते किसान, मज़दूर
या किसी अन्य कामगर के दर्द को,
क्या हम सच में समझ पाते हैं।
माना लाख दम भरें हम,
किसानों व मज़दूरों के समक्ष,
अपनी पढ़ाई व रहन-सहन का,
मगर खेत में पसीने से तरबतर किसान,
या तपती गर्मी में तारकोल बिछाते मज़दूरों के समक्ष,
क्या हम कहीं टिक भी पाते हैं?
किसानों व मज़दूरों के समक्ष,
अपनी पढ़ाई व रहन-सहन का,
मगर खेत में पसीने से तरबतर किसान,
या तपती गर्मी में तारकोल बिछाते मज़दूरों के समक्ष,
क्या हम कहीं टिक भी पाते हैं?
©स्वर्ण दीप बोगल
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