बड़ा सुंदर था वो बचपन,
जब बुरे को बुरा
व अच्छे को अच्छा कहने में,
सोचना नहीं पड़ता था।
जब बुरे को बुरा
व अच्छे को अच्छा कहने में,
सोचना नहीं पड़ता था।
बड़ा सुंदर था वो बचपन,
जब किसी की गलत बात पर,
फटाक से उत्तर देने के लिए,
सामने वाला कौन है,
ये सोचना नहीं पड़ता था।
जब किसी की गलत बात पर,
फटाक से उत्तर देने के लिए,
सामने वाला कौन है,
ये सोचना नहीं पड़ता था।
बड़े सुहाना था वो बचपन,
जब बिना किसी मानसिक घुटन के,
दिल के जज़्बात रखने में,
बेबाकी से अपनी बात करने में,
कोई फर्क न पड़ता था।
जब बिना किसी मानसिक घुटन के,
दिल के जज़्बात रखने में,
बेबाकी से अपनी बात करने में,
कोई फर्क न पड़ता था।
बहुत याद आता है वो बचपन,
जब किसी के झूठ के पुलन्दे को
एकदम नकारने में,
और सच का साथ देने में,
हमें एक पल भी न लगता था।
जब किसी के झूठ के पुलन्दे को
एकदम नकारने में,
और सच का साथ देने में,
हमें एक पल भी न लगता था।
© स्वर्ण दीप बोगल
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