लोकतंत्र का विकास?
वाद-विवाद व सकारात्मक बहस,
जब लगे गुज़रे ज़माने की बात है,
राजनैतिक व वैचारिक विरोध के
हल्के से स्वर पर भी हो हल्ला मचा देना,
जब लगे जैसे आम बात है,
तो कब तक झूठा दम्भ भरेंगे कि
महान लोकतंत्र की हम मिसाल हैं।
विचारों पर भी जब हर प्रहर पहरा है
विरोध की स्याही सोखकर
कलम का जैसे गला घोंटा जा रहा है,
रचनाकार जब कलात्मकता छोड़,
हवा के रुख के हिसाब से लिख रहा है
तो कब तक झूठा दम्भ भरेंगे कि
हमारे महान लोकतंत्र का विकास हो रहा है।
लोकतंत्र का चौथा स्तम्भ भी जब
काँपता-थरथराता नज़र आ रहा है,
मर्यादित मूल्यों को छोड़ जब वह,
कभी डरकर तो कभी लोभ में,
सत्ता के गलियारों में लौटता नज़र आ रहा है,
तो कब तक झूठा दम्भ भरेंगे कि
हमारे महान लोकतंत्र का विकास हो रहा है।
- स्वर्ण दीप बोगल
वाद-विवाद व सकारात्मक बहस,
जब लगे गुज़रे ज़माने की बात है,
राजनैतिक व वैचारिक विरोध के
हल्के से स्वर पर भी हो हल्ला मचा देना,
जब लगे जैसे आम बात है,
तो कब तक झूठा दम्भ भरेंगे कि
महान लोकतंत्र की हम मिसाल हैं।
विचारों पर भी जब हर प्रहर पहरा है
विरोध की स्याही सोखकर
कलम का जैसे गला घोंटा जा रहा है,
रचनाकार जब कलात्मकता छोड़,
हवा के रुख के हिसाब से लिख रहा है
तो कब तक झूठा दम्भ भरेंगे कि
हमारे महान लोकतंत्र का विकास हो रहा है।
लोकतंत्र का चौथा स्तम्भ भी जब
काँपता-थरथराता नज़र आ रहा है,
मर्यादित मूल्यों को छोड़ जब वह,
कभी डरकर तो कभी लोभ में,
सत्ता के गलियारों में लौटता नज़र आ रहा है,
तो कब तक झूठा दम्भ भरेंगे कि
हमारे महान लोकतंत्र का विकास हो रहा है।
- स्वर्ण दीप बोगल
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