Monday 30 October 2017

कैसी_नींद

कैसी नींद

किसी को यहाँ हिन्दू चाहिए,
तो किन्हीं को बस मुसलमान।
जाने किस नींद में जी रहे हैं हम,
कि भूल बैठे हैं कि हम हैं इंसान।

किसी के दर्द का हमें अहसास नहीं,
कैसे कठोर हो गये हैं नहीं पड़ता जान।
जाने किस नींद में जी रहे हैं हम,
कि भूल बैठे हैं कि हम हैं इंसान।

एकता-अखण्डता की यहाँ बस बातें होती,
और दिलों में बस घृणा है विद्यमान।
जाने किस नींद में जी रहे हैं हम,
कि भूल बैठे हैं कि हम हैं इंसान।

धार्मिक द्वेष का ऐसा चश्मा चढ़ा कि,
बच्चे, बूढे व कमजोरों की भी न रहती पहचान।
जाने किस नींद में जी रहे हैं हम,
कि भूल बैठे हैं कि हम हैं इंसान।

#बोगल_सृजन

Saturday 28 October 2017

समान शिक्षा का अधिकार ??

समान शिक्षा का अधिकार ??

हाँ सुना तो है हमने कि
हमारे महान लोकतंत्र का संविधान,
किसी अन्य मौलिक अधिकार जैसे ही,
छोटे-बड़े या गरीब-अमीर का भेद जाने बिना,
सभी को समान शिक्षा का अधिकार देता है।

जब दिखती हैं हमें सर्व शिक्षा अभियान व
शिक्षा के अधिकार जैसी सरकारी योजनाऐं,
जब निजी स्कूल की लक्ज़री बस से निकलते बच्चे
भारत के उपग्रह कार्यक्रम पर चर्चा करते दिखें
तो यह यकीन पुख्ता होने लगता है।

मगर उसी बस के सामने से फटी नज़रों से,
फटेहाल जूते व मैली वर्दी पहने और
फ़टी पुरानी किताबें लिए गुज़रते हैं जब
किसी सरकारी स्कूल के बच्चे,
तो अभी-अभी पुख्ता हुआ यकीन धुंधला होने लगता है।

थोड़ा आगे चलकर उसी सरकारी स्कूल में,
पढ़ाई की आस लगाए छात्रों को पढ़ाना छोड़,
मिड डे मील के अनाज का हिसाब करते व
आने वाले किसी सरकारी सर्वे में ड्यूटी को कोसते
शिक्षकों को देख, शिक्षा का हाल कुछ और नज़र आता है।

मिड डे मील व् अन्य सरकारी ड्यूटियों से फारिग
शिक्षकों  के बचे हुए समय में पढ़ते सरकारी स्कूल के छात्रों व् 
किसी निजी स्कूल की संपन्न प्रयोगशाला में ,
एकाग्रता से हर प्रश्न का उत्तर पाते छात्रों को देख,
समान शिक्षा के अधिकार का भ्रम जाल टूटने लगता है। 

अब दोष चाहे सरकारी शिक्षकों पर लाद दें,
शिक्षकों से शिक्षा छोड़ अन्य ड्यूटियां लेती सरकारी नीतियों पर,
कम आय के चलते अपने बच्चों को निजी स्कूलों में 
पढ़ा पाने में असमर्थ अभिवावकों पर लाद दें,
मगर शिक्षा के समान अधिकार हैं ये तो नहीं लगता है। 

जब देश में व्याप्त दोहरी शिक्षा नीति के चलते,
सभी नौनिहालों को शिक्षा के समान अधिकार न मिल पाएं,
जब सरकारों की रूचि बच्चों को समान शिक्षा भूलकर, 
किन्ही और चीज़ों में हो तो अपने देश के भविष्य से,
बहुत ज़्यादा उमीदें रखना बेमानी लगता है।। 

- बोगल सृजन 

Wednesday 25 October 2017

रचनाओं पर प्रश्न

रचनाओं पर प्रश्न


हाँ, मैंने माना कि
प्रेम के गीत मैं नहीं लिखता,
प्रकृति की सुंदरता का बखान करती
कोई रस भरी कविता भी मैं नहीं लिखता।

मैंने ये भी माना कि
अपने चहुँ ओर फैली चकाचौंध से
प्रतीत होती खुशहाली व समृद्धि पर भी,
मैं कुछ नहीं लिखता।

ये आरोप भी मैं ले लेता हूँ कि
विकास के नाम पर बन रही
गगनचुंबी इमारतों व पुलों आदि की
तारीफ सुनाता कोई नगमा मैंने नहीं लिखा।

ये सब मानता हूँ फिर भी
श्रृंगार रस पर लिखुं मैं लगता तो नहीं,
क्योंकि यौवन का रसपान करती रचनाएं,
बहुत लिखी गयी और लिखी जाएंगी।

समृद्धि व खुशहाली व चकाचौंध,
जो नज़र आती है कुछ दूर तलक,
कथाएं व कविताएं उनपर भी,
बहुत कही गयी और कही जाएंगी।

मगर जाने क्यो मेरी रचनाएं,
विलासता से भरपूर विशाल महलों को चीरती,
कटी-फ़टी तिरपाल से ढ़की हुई,
किसी गरीब की झोंपडी पे जा रुकती हैं।

जाने क्यों मेरी कविताएं,
मेहनतकशों के खून-पसीने से अर्जित
धन से समृद्ध धनिकों का महिमामंडन न करके,
मज़दूर की बद्तर हालत पे जा टिकती हैं।

नाना प्रकार के व्यंजन पकते हैं जब,
मेरी रसोई में फिर भी क्यों मेरी कविताएं,
फाँसी का फंदा तलाशते, कर्ज़ में डूबे,
अन्नदाता किसान पर ही जा रुकती हैं।

हाँ, ये अपराध ही है मेरा,
कि मेरी रचनायें चकाचौंध से परे,
सामाजिक कुरीतियों के बारे, व
साधारण जनमानस का दुख-दर्द सुनाती हैं।

- बोगल सृजन 

Tuesday 17 October 2017

काला धन: सफेद धन

काला धन: सफेद धन

धन तो धन बाज़ार में,
जब निकल पड़े लुटाने,
धन काला है या सफेद है,
ये कैसे कोई पहचाने ?

मैं सच्चा हूँ, हर कोई बोले,
चुराये हों चाहे कितने ख़जाने।
पर सच्चा शायद चीखे चिल्लाये,
उसकी फिर भी कोई न माने।

झूठ-सच और सफेद-काले का,
क्या कोई अंतर पहचाने,
घर भरते जो खुद काले धन से
वो ओरों को चले ईमान सिखाने।

सच्चाई-ईमान पर चलने वाले,
कहाँ ढूंढते फिरते हैं बहाने।
वो तो सदा सत्य-निष्ठा से चलते,
चाहे अपने-पराये भी कदर न जाने।

सफेद और काले धन की,
ये कथा कबतक चलेगी जाने।
शायद नीयत नहीं है कुछ करने की,
बस करके दिखाएंगे बहाने।

- बोगल सृजन 

Sunday 15 October 2017

भूख_का_मजहब

भूख_का_मजहब

न ये मस्जिद की चौखट,
न तो कोई शिवाला जानती है,
न इसको कुछ गिरजे से लेना,
न ये कोई गुरुद्वारा जानती है,
ये तो पेट की आग है साहब,
ये तो रोटी का निवाला जानती है।

वही चेहरे जो भूख मिटाते दिखे थे
मुझे कल मस्जिद की चौखट पर।
आज उन्हीं को गुरुद्वारे के लंगर में
पेट की आग मिटाते देखकर आया हूँ,
तब से धर्म बड़ा है या भूख,
इसपर फैसला ही नहीं कर पाया हूँ।

जब तक पेट में अन्न होता है 
तब तक हम मज़हबी फ़साद हज़ार करलें,
पर पेट की आग जब मजबूर करदे और दूर तक
जब भूख मिटाने को कुछ न हो,
तब भूख ही ज़ात भूख ही मजहब,
पड़े रह जाते बाकी मजहब सारे हैं।

- बोगल_सृजन

Saturday 14 October 2017

लघु कथा - आपको कैसा लगता है??

लघु कथा - आपको कैसा लगता है??

अनमोल करीब 7 साल का बच्चा है। उसके पिता अमित किसी सरकारी कार्यालय में कार्यरत हैं और उसकी माँ कविता किसी निजी विद्यालय में अध्यापिका हैं। अनमोल कक्षा दूसरी में पढ़ रहा है और वह बहुत बातूनी लेकिन बुद्धिमान बालक है। अपनी आयु से बड़ी व अनोखी बातें पूछना उसके लिए साधारण बात है।

अपने माँ-बाप से भी वह अक्सर बहुत कुछ पूछता है, जैसे कि आप लोग कौन से स्कूल में पढ़ते थे, कौन से कॉलेज में पढ़ते थे, इकट्ठे पढ़ते थे या अलग-अलग पढ़ते थे। आप दोनों की शादी कब हुई और कैसे हुई। क्या आप दोनों शादी से पहले एक दूसरे को जानते थे?

अमित और कविता भी बहुत आज़ाद विचारधारा रखते हैं व जहां तक हो सके अनमोल के हर प्रश्न का उत्तर देते हैं ताकि नई-नई चीजों को जानने की व समाज को समझने-बूझने की प्रक्रिया जो एक बच्चे में स्वाभाविक रूप से होती है वो उसके अंदर विकसित हो।

आजकल अनमोल बहुत उत्सुक है क्योंकि उसकी इकलौती मौसी की शादी जो आने वाली है और छोटा होने की वजह से शादी से संबंधित हर खरीददारी में, मसलन दहेज के लिए खरीदे जा रहे इलेक्ट्रॉनिक गैज़ेटेस, फर्नीचर या सुनार आदि, वह अपने माँ-बाप के साथ ही रहता है। बड़े चाव से चीज़ों को देखना और उनके बारे में प्रश्न ऐसे कि  आसपास के लोग भी सुनकर हंस पड़ें।

खरीददारी के बाद घर आकर एक दिन अनमोल ने अमित से पूछा, पापा ये मौसी जी की शादी के लिए मामूजी और नानूजी इतना सामान क्यों खरीद रहे हैं?
अमित ने कहा, बेटा ये सब सामान मौसीजी की शादी में उपहार के तौर पर दिया जाएगा।
इसपर अनमोल बोला कि इतने सारे उपहार क्यों दे रहे हैं मौसा जी को। क्या उनके घर में सामान नहीं है?
अमित ने अनमोल को समझाते हुए बताया कि ये हमारे समाज का एक पुराना रिवाज़ है जिसके तहत लड़की के माता-पिता लड़के तो शादी में उपहार या दहेज़ देते हैं। 

ये सब बातें सुन नन्हा अनमोल चुप सा हो गया और कुछ सोचने लगा।  कुछ देर सोचने के बाद फिर से बोला, पापा, क्या आपने भी अपनी शादी में नानूजी से दहेज़ लिया था, उनके तो सारे पैसे ही ख़त्म हो  होंगे।  

इसपर अमित ने अपने बेटे को जवाब दिया, नहीं बेटा दहेज़ हमारे समाज का एक पुराना मगर बुरा रिवाज़ है और इसीलिए मैंने अपनी शादी के वक्त तुम्हारे नानुजी प्राथना की थी की मुझे दहेज़ नहीं लेना जो उन्होंने स्वीकार कर लिया था। 

अच्छा, अन्मोल बोला, उसके चेहरे पर कुछ शान्ति थी मगर शायद अब भी कुछ सवाल उसके नन्हे मन में उबाले मार रहे थे।  कुछ देर चुप रहने के बाद वो फिर अमित से बोला, पापाजी, मौसाजी के लिए जो नानुजी इतना सामान ले रहे हैं आपको कहीं बुरा तो नहीं लग रहा ??

अनमोल के प्रश्न से अमित अवाक सा रह गया।  उसे चुप कराते हुए पास बैठी कविता गुस्से से बोली, अनमोल, ये कैसी बाते कर रहे हो आप अपने पापा से।  चलो उनको सॉरी बोलो। 

अमित ने कविता को चुप कराते हुए बोला, कोई बात नहीं बेटा, मैं बताता हूँ मुझे दिल से कैसा लग रहा है नानू जी का तुम्हारे मौसा जी के लिए दहेज़ का सामान खरीदते हुए देखकर। 

हाँ, सच में मुझे बहुत बुरा लग रहा है कि दहेज़ जैसी कुरीति के खिलाफ आज भी लोग नहीं खड़े होते जब हर साल हज़ारो बेटियां दहेज़ के कारण प्रताड़ित होती हैं क्योंकि कुछ गरीब माँ-बाप दहेज़ नहीं दे पाते।

इसके साथ इस बात की बहुत ही ज़्यादा ख़ुशी भी है की आज से 9 साल पहले  भी मैं इतनी समझ  रखता था कि दहेज़ एक सामाजिक बुराई है। 


- बोगल सृजन 

Sunday 8 October 2017

दोष किसका??

दोष किसका??

चलिए मान ही लेते हैं कि
अंधेरे में घर से बाहर निकलना,
महिलाओं का अकेले में,
बिल्कुल ठीक बात नहीं है।

चलिए ये भी मान लेते हैं कि,
कुछ पश्चिमी परिधान पहनना महिलाओं का,
उकसाता है भोले-भाले मर्दों को,
इसलिए वो भी ठीक बात नहीं है।

चलो ये इल्ज़ाम भी मान ही लेते हैं कि,
धार्मिक स्थलों को छोड़कर महिलाओं का, 
क्लबों-पबों में दारू पीकर झूमना,
मर्दों को उकसाने वाली बात है।

मगर स्त्रियों की दिनचर्या तय करने वाले, 
महानुभाव ज़रा ये तो बता दें कि
दिन के उजाले में महिलाओं पे,
क्या कभी नहीं होते अत्याचार हैं??

स्त्रियों के वस्त्रों पर प्रश्न करने वाले ये भी बतायें
कि कैसे रुकेंगे स्त्रियों पर बढ़ते यौन हमले,
जब बुर्क़ा पहनने वाली महिलाएं व
दुधमुंही बच्चियां तक होती दरिंदगी का शिकार हैं।

खुद हर ऐब पाल स्त्रियों पर प्रश्न करने वाले,
ये क्यों नहीं समझ पाते कि
जब गंदगी अपनी सोच में, अपनी नज़र में है तो,
महिलाओं पे क्यों प्रश्न हज़ार हैं????

बोगल सृजन

Wednesday 4 October 2017

प्रेम तो प्रेम है

प्रेम तो प्रेम है

ये लव जिहाद क्या बला है,
क्या किसी को समझाइये?
अगर पता चले आपको इस बारे में तो, 
कृपया हमें अवश्य बतलाइये।

लव जिहाद नामक शब्दावली भी,
हिंदी भाषा में बहुत पुरानी नही है
कुछ वर्ष पीछे जाएं हम अगर,
इस शब्द की कोई निशानी नहीं है।

अंतर्धार्मिक विवाह होते सदियों से,
ये बात कोई अनजानी नहीं है,
कभी राजनैतिक गठबंधन तो कभी सिर्फ प्रेम,
पर ऐसी क्रूर परिभाषा की कोई निशानी नहीं है।

फिर क्यों साधारण जन मानस की 
भावनाओं का बनाया जा रहा मज़ाक है,
वो करें अगर तो बस प्रेम है ये
हम करें अगर तो क्यों लव जिहाद है??

प्रेम तो एक बहुत पवित्र शह है 
कृपया इसे धर्मों में न तौलिये,
राजनीति करने के लिए बहुत कुछ है
इसे प्रेम में तो न घोलिये।।

- बोगल सृजन