Wednesday 29 November 2017

सच्चाई का सच

सच्चाई का सच

सत्य, निष्ठा व कर्तव्य परायणता,
गुज़रे ज़माने की ही पड़ती जान है,
व्यक्तिगत स्वार्थ को देकर तिलांजलि,
कर्म को धर्म मान निष्ठा से जो लगे रहे,
ऐसे लोगों की अब कहाँ पहचान है।

आडम्बरों से ऐसा आकर्षक हुआ असत्य,
कि सत्य को भी चाहिए अब प्रमाण हैं।
भ्रष्टाचार, धोखाधड़ी व असत्य का अनुसरण
जो सदा करते रहे जीवन प्रयन्त,
वही सत्य, ईमानदारी के अब पैरोकार हैं।


बेईमानी व भ्रष्टाचार का छाया घना कोहरा ऐसा,
कि सच्चाई की राह अब नहीं आसान है।
सच परखने वाले जौहरी अब मिलते कहाँ,
फ़ूंक-फूंक कर कदम रखना पड़ता है यहाँ,
क्योंकि सच्चाई व ईमान वालों पर अब इल्ज़ाम हैं।।

- बोगल सृजन

Monday 27 November 2017

मेरी_निराश_कविताएं

मेरी_निराश_कविताएं

हाँ, विरोध हो सकता है,
मेरी निराश कविताओं का,
जो तथ्यों पर आधारित तो होती हैं,
मगर कागज़ी चकाचौंध से कहीं दूर,
समाज में फैली आर्थिक व सामाजिक,
विषमताओं की बात करती हैं।

हाँ, विरोध हो सकता है,
मेरी निराश कविताओं का,
जो अवसरवादिता का शिकार न होकर,
चहुँ ओर फैली खामोशी को तोड़,
अपने अधिकारों के लिए एकजुट हो,
आवाज़ बुलंद करने की बात करती हैं।

हाँ, विरोध हो सकता है,
मेरी निराश कविताओं का,
जो ई०एम०आई० पे खरीदे सामान से, 
अपनी झूठी अमीरी जताते मध्यमवर्ग के,
खोखले दिखावे के अंदर बसे हुए,
आर्थिक दिवालियेपन की बात करती हैं।

नहीं फर्क पड़ता मुझे अगर विरोध हो,
मेरी निराश कविताओं का,
जो हर तरफ समृद्धि व खुशहाली न दिखा,
समाज के विभिन्न तबकों की ज़रूरत,
व उसके लिये ज़रूरी,
हर जद्दोजहद की बात करती हैं।

नहीं परवाह विरोध हो अगर,
मेरी निराश कविताओं का,
जो झूठ के इस भयंकर दौर में भी,
जनमानस में झूठी आशा न जगाकर,
हिम्मत, परिश्रम व लगन से काम करके,
स्वंय पर विश्वास करने की बात करती हैं।।

#बोगल_सृजन

Wednesday 22 November 2017

कल_और_आज

कल और आज

इतिहास के पन्नों में अंकित,
हैं कैद कितनी ही गाथाएँ,
जिनमें वीरों ने हैं लाँघी,
जाने कितनी ही बाधाएँ।

इन शौर्य गाथाओं से ही,
हो प्रेरित हम सबने,
अपना भविष्य संवारने के,
हैं बेहतर सपने संजोए।

ऐतिहासिक घटनाऐं हमको,
कुछ सीख हैं सिखलाती,
गर न सीखा कुछ इनसे,
ये खुद को ही दोहराऐं।

कई गौरवशाली व्यक्तित्व हैं ऐसे,
इन ऐतिहासिक गाथाओं में,
जिनके त्याग, बलिदान एवं शौर्य,
प्रभावित हमें आज भी कर जाएं।

पर कल तो कल है,
वो तो बीता हुआ पल है,
जब हो तुलना कल व आज की,
आज ही भारी पड़ जाए।

इतिहास में अंकित ये शौर्य गाथाएँ,
हमारा आज जब खायें,
तो कल को छोड़कर पीछे,
है बेहतर अपना आज ही बचाएं।।

#बोगल_सृजन

Sunday 19 November 2017

सहारा अपनों का

सहारा अपनों का

सहारा छोड़ अपनों का,
निकला था मैं जब बाहर,
लगा ऐसे था मुझको के,
बड़ा कोई तीर मारा है।

बड़ी बेदर्दी से जब मैंने,
दिल अपनों का तोड़ा था,
कहाँ सोचा था तब मैंने  
दर्द का कोई तार छेड़ा है।

लगा मुझको था ये शायद,
कि क्या अपना बेगाना है,
किसी भी गर्ज़ पर अपनी,
मुझे बस बदला चुकाना है।

बेगानों के धोखे ने ही,
सिखाई मुझे अब सीख जीवन में,
कि निश्चल प्रेम व आदर,
बस अपनों से ही मिल पाना है।

सीखा है जो अब मैंने,
वो शायद जान ही न पाता,
कि कीमत अपनों के अहसानों की,
बड़ा मुश्किल लगाना है।।

#बोगल_सृजन

Saturday 18 November 2017

खामोशी की आवाज़

खामोशी की आवाज़

बहुत अहम है ज़िन्दगी में बातचीत,
मैं मानता हूँ मगर फिर भी
मौन रहकर भी कभी बहुत बात होती है।

बहुत अहम है आपसी संवाद,
एक दूसरे को समझ पाने के लिए मगर,
कभी खामोशी ही बहुत कुछ कह जाती है।

माना मुश्किल होगा दर्द बयाँ करना बिन बोले,
मगर जो दर्द पढ़ ही न पाया आँखों से,
उसको दिल की बात क्या ख़ाक सुनाई जाती है?

मैंने कसम नहीं खायी मौन रहने की मगर,
खामोशी में कभी-कभी आवाज़,
आवाज़ से अधिक बुलंद सुनाई जाती है।

- बोगल सृजन

Tuesday 14 November 2017

बचपन

बचपन

चित चंचल और अठखेलियां
जब करने को होता था मन,
जब माँ-पापा की डाँट पर भी,
उपद्रव मचता था हर दम,
जब मासूमियत ही हावी थी
अपनी हर शरारत पर हर क्षण,
जब कुछ पैसे की कुल्फी भी
हमें कितनी खुशी दिलाती थी,
जब जमकर आपस में लड़ते थे,
फिर भी न था कोई बैर भरम,
बड़ा याद आता है मुझको अब,
बीत गया प्यारा बचपन।।

#बोगल_सृजन

Sunday 12 November 2017

एक पिता का पश्चाताप

एक पिता का पश्चाताप

अपनों के गर्म अहसासों से कहीं दूर,
वृद्धाश्रम के किसी कोने में, दिन काट रहा हूँ।
किसे दोष दूँ मैं इस बात का,
जो कभी बोया था कभी खुद, 
आज वही तो काट रहा हूँ।

कभी भरे-पूरे घर में सत्ता थी मेरी,
छोटी से छोटी फरमाइश भी तब,
हर कीमत पर पूरी होती थी मेरी।
अब रुआंसा हो पुरानी तस्वीरें छांट रहा हूँ,
जो बोया था कभी, वही तो काट रहा हूँ।

अभी कल की ही तो बात है जैसे,
जब पुत्रमोह की पट्टी चढ़ा मैंने,
गिड़गिड़ाती पत्नी की करुण याचना को ठुकरा,
अपनी ही बच्चियों को कैसे,
कोख में ही मरवाया था मैंने।

अभी कल की तो बात है जैसे,
जब बेटे के पहला कदम चलने पर,
क्या-क्या जश्न मनाया था मैंने।
उसकी छोटी से छोटी फ़र्माइश को भी,
किसी कीमत पर भी पूरा करवाया था मैंने।

ये भी कल की बात लगती है जैसे,
जब यू०एस० ग्रीन कार्ड वाला मेरा बेटा,
खून पसीने से बना मेरा घर बेच, 
मेरा यू०एस० वीज़ा लेने गया था जो कभी,
फिर कभी फ़ोन भी न कर पाया वो कैसे।

अपनी सोच पर अक्सर सोचता हूँ तन्हाई में,
कि थोड़ी इंसानियत दिखाई होती अगर उस दिन,
तो कभी दर्द बाँट लेती मेरी बेटी इस रूसवाई में,
पर अब क्या मैं बैठा हिसाब कर रहा हूँ,
जो बोया था कभी, वही तो काट रहा हूँ।

-बोगल सृजन

Friday 10 November 2017

मज़दूर की एक हसीन शाम

मज़दूर की एक हसीन शाम

मुद्दतों बाद लगा जैसे शाम आयी,
कभी न खत्म होते दिख रहे,
दिन की हाड़तोड़ मेहनत के बाद,
हथेली पर आया जब मेहनताना, 
तो यूँ लगा जैसे जान में जान आयी।

न, न, कोई लालच नहीं मुझे,
न ही अपने भूखे पेट की आग बुझानी है,
एक दिन भूखा भी रह लूंगा अगर,
अपने लिए कौन सी नई बात है
सिर्फ भूख से नहीं ये जान जानी है।

कई दिनों की भूख के साथ-साथ,
बुखार से तपकर जलते मेरे बच्चे को,
बस गीली पट्टियों से कहाँ नींद आनी है
दिहाडी से दवाई व खाने का जुगाड़ करलूँ अगर,
तो शायद मिट पाए कुछ परेशानी है।

शाम तो रोज़ आती है लगातार बिना रुके,
मगर बिना दिहाड़ी के शाम किस काम की,
जो मेरे घर के ठंडे चूल्हे को गर्म न कर सके,
वो शाम भी क्या करनी जो भूख से जलते 
मेरे बच्चों के पेटों को ठंडा न कर सके।

सो आज की शाम कुछ ख़ास सी है,
बस यही सोचकर भूख व बुखार से तड़पते
बच्चे को छोड़ निकल पड़ा हूँ दिहाड़ी पर,
ताकि एक बेरंगी शाम कुछ हसीन बन पाएगी,
जो मेरे परिवार के पेट की आग बुझाएगी।।

- बोगल सृजन

Saturday 4 November 2017

अलंकार विहीन कविताएं


मैं ये भली-भांति जानता हूँ
कि अलंकार विहीन,
साधारण जनमानस के साधारण विषयों पर
चर्चा करती मेरी नीरस कविताएं,
नहीं पढ़ी जाएंगी बड़े-बड़े कवि-सम्मेलनों में।।

कोई अवसाद नहीं हैं मेरे मन-मस्तिष्क में,
बस आस है कि बन्द दरवाज़ों में न पढ़ी जाकर,
आम जनता का दर्द बयां करती मेरी कवितायें
कभी खुले मैदान में जनसाधारण के
विशाल जनसमूहों में पढ़ी जाएं।।

मैं चाहता हूँ कि मज़दूरों की अथाह मेहनत,
उनके दुख-दर्द व अधिकारों पर बोलती
मेरी गरीब व लाचार कविताएं,
विलासता प्रदर्शित करते ए सी हॉल में नहीं
बल्कि मज़दूरों के विशाल जनसमूह में पढ़ी जाऐं।।

मैं आशा करता हूँ कि कर्ज़ के बोझ के चलते,
फांसी के फंदे चुनते किसानों की व्यथा कहती,
मेरी निराशावादी कविताएं,
अपने अधिकारों के लिए संगठित होते,
किसानों के बीच पढ़ी जाएं।।

- बोगल सृजन