Sunday 12 November 2017

एक पिता का पश्चाताप

एक पिता का पश्चाताप

अपनों के गर्म अहसासों से कहीं दूर,
वृद्धाश्रम के किसी कोने में, दिन काट रहा हूँ।
किसे दोष दूँ मैं इस बात का,
जो कभी बोया था कभी खुद, 
आज वही तो काट रहा हूँ।

कभी भरे-पूरे घर में सत्ता थी मेरी,
छोटी से छोटी फरमाइश भी तब,
हर कीमत पर पूरी होती थी मेरी।
अब रुआंसा हो पुरानी तस्वीरें छांट रहा हूँ,
जो बोया था कभी, वही तो काट रहा हूँ।

अभी कल की ही तो बात है जैसे,
जब पुत्रमोह की पट्टी चढ़ा मैंने,
गिड़गिड़ाती पत्नी की करुण याचना को ठुकरा,
अपनी ही बच्चियों को कैसे,
कोख में ही मरवाया था मैंने।

अभी कल की तो बात है जैसे,
जब बेटे के पहला कदम चलने पर,
क्या-क्या जश्न मनाया था मैंने।
उसकी छोटी से छोटी फ़र्माइश को भी,
किसी कीमत पर भी पूरा करवाया था मैंने।

ये भी कल की बात लगती है जैसे,
जब यू०एस० ग्रीन कार्ड वाला मेरा बेटा,
खून पसीने से बना मेरा घर बेच, 
मेरा यू०एस० वीज़ा लेने गया था जो कभी,
फिर कभी फ़ोन भी न कर पाया वो कैसे।

अपनी सोच पर अक्सर सोचता हूँ तन्हाई में,
कि थोड़ी इंसानियत दिखाई होती अगर उस दिन,
तो कभी दर्द बाँट लेती मेरी बेटी इस रूसवाई में,
पर अब क्या मैं बैठा हिसाब कर रहा हूँ,
जो बोया था कभी, वही तो काट रहा हूँ।

-बोगल सृजन

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