Saturday 4 November 2017

अलंकार विहीन कविताएं


मैं ये भली-भांति जानता हूँ
कि अलंकार विहीन,
साधारण जनमानस के साधारण विषयों पर
चर्चा करती मेरी नीरस कविताएं,
नहीं पढ़ी जाएंगी बड़े-बड़े कवि-सम्मेलनों में।।

कोई अवसाद नहीं हैं मेरे मन-मस्तिष्क में,
बस आस है कि बन्द दरवाज़ों में न पढ़ी जाकर,
आम जनता का दर्द बयां करती मेरी कवितायें
कभी खुले मैदान में जनसाधारण के
विशाल जनसमूहों में पढ़ी जाएं।।

मैं चाहता हूँ कि मज़दूरों की अथाह मेहनत,
उनके दुख-दर्द व अधिकारों पर बोलती
मेरी गरीब व लाचार कविताएं,
विलासता प्रदर्शित करते ए सी हॉल में नहीं
बल्कि मज़दूरों के विशाल जनसमूह में पढ़ी जाऐं।।

मैं आशा करता हूँ कि कर्ज़ के बोझ के चलते,
फांसी के फंदे चुनते किसानों की व्यथा कहती,
मेरी निराशावादी कविताएं,
अपने अधिकारों के लिए संगठित होते,
किसानों के बीच पढ़ी जाएं।।

- बोगल सृजन

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