Friday 10 November 2017

मज़दूर की एक हसीन शाम

मज़दूर की एक हसीन शाम

मुद्दतों बाद लगा जैसे शाम आयी,
कभी न खत्म होते दिख रहे,
दिन की हाड़तोड़ मेहनत के बाद,
हथेली पर आया जब मेहनताना, 
तो यूँ लगा जैसे जान में जान आयी।

न, न, कोई लालच नहीं मुझे,
न ही अपने भूखे पेट की आग बुझानी है,
एक दिन भूखा भी रह लूंगा अगर,
अपने लिए कौन सी नई बात है
सिर्फ भूख से नहीं ये जान जानी है।

कई दिनों की भूख के साथ-साथ,
बुखार से तपकर जलते मेरे बच्चे को,
बस गीली पट्टियों से कहाँ नींद आनी है
दिहाडी से दवाई व खाने का जुगाड़ करलूँ अगर,
तो शायद मिट पाए कुछ परेशानी है।

शाम तो रोज़ आती है लगातार बिना रुके,
मगर बिना दिहाड़ी के शाम किस काम की,
जो मेरे घर के ठंडे चूल्हे को गर्म न कर सके,
वो शाम भी क्या करनी जो भूख से जलते 
मेरे बच्चों के पेटों को ठंडा न कर सके।

सो आज की शाम कुछ ख़ास सी है,
बस यही सोचकर भूख व बुखार से तड़पते
बच्चे को छोड़ निकल पड़ा हूँ दिहाड़ी पर,
ताकि एक बेरंगी शाम कुछ हसीन बन पाएगी,
जो मेरे परिवार के पेट की आग बुझाएगी।।

- बोगल सृजन

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