गर्मी की तपती दोपहरों में
और सर्दी की ठंडी रातों में,
गाँव-गाँव और शहर-शहर,
तुम जिन्हें पुकारा करते थे
कि एक बार तो मुझे चुनो।
अब जनता वही पुकार रही,
उस जनता की आवाज़ सुनो।
जिनके वोटों की चाहत में,
कुछ भी करने की कहते थे।
जिनके नखरों की खातिर तुम,
बस मारे-मारे फिरते थे।
अब कुर्सी पे विराजमान हो,
उन सब की तुम आवाज़ बनो,
हाँ, जनता की आवाज़ सुनो।।
- स्वर्ण दीप बोगल
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