Monday 2 April 2018

कविता - मैं गृहिणी कहलाती हूँ।


रोज़ सवेरे त्याग के बिस्तर,
सबसे पहले उठ जाती हूँ,
चाय की प्याली लिए सँग मैं,
बारी-बारी से सबको जगाती हूँ।
बंटी की बोतल, मुन्नी का बस्ता,
पति का टिफ़िन, ससुरजी की दवा,
कपड़ों की इस्तरी और साफ-सफाई,
हर काज को मैं सुलझाती हूँ,
हाँ! घर में निठल्ले रहने वाली,
मैं गृहिणी कहलाती हूँ।।

काम सुबह का खत्म हुआ न,
दोपहर का सामने मैं पाती हूँ,
ये तो दिनचर्या जीवन की,
फुर्सत ही कहाँ मैं पाती हूँ।
सुबह से शाम की भागादौड़ी में,
खुद कहीं गुम हो जाती हूँ।
इसमें भी खुश रहती मैं,
पर सुन आरोप  तड़प मैं जाती हूँ,
हाँ! घर में निठल्ले रहने वाली,
मैं गृहिणी कहलाती हूँ।।

© बोगल सृजन

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