Friday 30 March 2018

अपने_भीतर


क्योंकि झूठ व झूठों का बाज़ार गर्म है,
सत्यवक्ता असहाय महसूस कर रहे हैं
व सच साबित करना
आज इतना सरल कार्य नहीं,
वरना, दुबके रहना अपने ही भीतर,
भला किसे अच्छा लगता है?

वो लोग बड़े शौक से
मुझे पागल भी कह सकते हैं
जिने मेरे इस अहसास से
कोई इत्तफ़ाक़ नहीं होगा, मगर
बिना बात दुबके रहना अपने ही भीतर,
भला किसे अच्छा लगता है?

कइयों के स्वर विद्रोही हैं,
व कईयों ने हवा का रुख पहचान लिया,
मगर कई अभी भी बैठे हैं लगन से,
बेहतर समय की प्रतीक्षा में,
वरना, दुबके रहना अपने ही भीतर,
भला किसे अच्छा लगता है?

कुछ_लोग

जब कभी हमें असहाय प्रतीत हो,
हम कहीं अकेले पड़ जाए,
तो याद आते हैं कुछ लोग।
खुशियां जो कभी मिली हमें,
उनको सांझा करने के लिए भी,
याद आते हैं कुछ लोग।
हमारे दिलों में स्थान इक खास,
रखते हैं ये खास 'कुछ लोग'।

हर किसी के जीवन में,
होते हैं खास कुछ लोग।
कभी भाई, कभी बहन,
कभी मित्र या कोई सखा,
कभी अपने तो कभी पराए,
कोई भी हो सकते हैं ये 'कुछ लोग'।
हर बार धोखा देने का कार्य ही,
कहाँ करते हैं कुछ लोग।

Sunday 25 March 2018

काश! #कुछ_हालात_बदलें।

ये आलम बदले, माहौल बदले,
कोई किसी को हिन्दू न समझे,
न किसी को मुसलमान समझे,
नफ़रतें भुलाकर प्रेम से हम,
इक-दूजे को बस इंसान समझें,
काश! ऐसे कुछ हालात बदलें।

सड़क किनारे कूड़े के ढेर से,
खाली बोतल, प्लास्टिक छांटते,
नन्हे-नन्हे बच्चों के हालात बदलें,
गरीबी-भुखमरी व चोरी का हाल सुनाते,
कभी तो ये अखबार बदलें।
काश! ऐसे कुछ हालात बदलें।

जात-पात का भेद भुलाएं,
रंग-रूप, भेष-भूषा व ऊँच-नीच छोड़,
सबको जब एक समान समझें,
थोड़ा मैं बदलूँ, थोड़ा सा आप बदलें,
शायद तब ही देश समाज बदले।
काश! ऐसे कुछ हालात बदलें।

- बोगल_सृजन

Friday 23 March 2018

कविता - शहीदों_को_नमन


कितने बसंत हैं बीत चुके,
फिर भी हमसब के हृदयों में,
हाँ, नाम तुम्हारे बाकी हैं।
हो इस दिल में या उस दिल में,
पर इंक़लाब की थी जो जगाई,
वो आग कहीं तो बाकी है।।

जिस आयु में हम पापा से,
बस फरमाइश करते थे,
उस किशोर अवस्था में तुम
पुलिस के डंडे झेल गये।
प्रणय निवेदनों की चिंता में,
जब दर-दर थे हम घूम रहे,
आज़ादी के सपने की खातिर,
तुम फाँसी का फंदा चूम गए।।

अपने प्राणों को देश की खातिर,
हँसते-हँसते तुम वार गये।
स्वतंत्रता पाने की ज़िद की खातिर,
अपना सर्वस्व तुम हार गये।
क्या हम कभी चुका पाएंगे,
जो कर्ज़ तुम्हारे बाकी हैं।
फ़र्ज़ निभा तुम विदा हो गए,
कुछ फ़र्ज़ हमारे बाकी हैं।।

- बोगल सृजन

Wednesday 21 March 2018

कविता - कवि बनने के लिए

एक कवि बनने के लिये,
भारी-भरकम शब्दावली संग,
लयबद्ध तरीके से,
शब्द कुछ खास चुनने के लिए,
कुछ वक्त तो लगता है।
प्यार के उस ख़ास अहसास को,
छंद को या अलंकार को,
हृदय की कोमल सम्वेदनाओं को,
कागज़ पर उतारने के लिए,
कुछ वक्त तो लगता है।।

मगर बिना छंद, अलंकार के,
साधारण जनमानस के दुख-दर्द को,
उनकी समस्याओं व चुनोतियों को,
महसूस कर शब्दों में पिरोकर,
जलधारा सा प्रवाहित करने के लिये,
बस मानवीय अहसास लगता है।
कोरी कल्पनाओं को छोड़,
बस समाज से प्रेरित होकर,
जन-जन के अधिकारों की बात करती,
ईमानदारी व कर्तव्यनिष्ठा की बात करती,
ऐसी कोई कविता लिखने के लिए,
कहाँ कुछ खास लगता है,
हाँ, बस मानवीय अहसास लगता है।
कविता के लिए कहां कुछ खास लगता है।।

#बोगल_सृजन

कविता - अखबार का वो पन्ना

कई रातों की अनिद्रा
व छटपटाहट के बाद भी,
अपनी कविता में पिरोने के लिये,
कुछ शब्द जब मैं नहीं ढूँढ पाया,
मध्यमवर्गीय दिनचर्या से हटकर,
पेज 3 के मसालेदार समाचार छोड़,
मैंने किसानों का दर्द बयां करता,
अखबार का एक पन्ना उठाया।।

कर्ज़ के बोझ में जो डूबता जा रहा,
सल्फास को जिसने अपना सहारा बनाया।
देश के अन्नदाता की स्थिति जब पढ़ी मैंने,
तो दर्द से निकली अश्रुधारा मैं रोक नहीं पाया।
महंगे बीज व खाद का बोझ से बेहाल जो,
सूखे-बाढ़ के आतंक ने जिसे डराया।
अच्छी फसल पर भी पूरे पैसे कहाँ मिलते,
तभी तो सँग परिवार आज सड़कों पर आया।।

कटे-फ़टे पांव लिए मीलों का सफर करके,
हारकर जब किसान सड़कों पर उतर आया,
असंवेदनशीलता की पराकाष्ठा लाँघकर,
कइयों ने तब भी उनपर सवालिया निशान लगाया।
किसानों की वेदना, तड़प व मजबूरी न दिखकर,
किसी को इसमें कांग्रेस का एजेंडा,
तो किसी को लाल झंडा नज़र आया।
हाँ, कविता के शब्द ढूंढने को मैंने,
अखबार का जब वो पन्ना था उठाया।।

- बोगल सृजन

Sunday 11 March 2018

कविता - वह अबोध सा बालक

वह अबोध सा बालक,
जिसके मुखमण्डल पर भूख की पीड़ा,
साफ तौर नज़र आ रही थी।
और जिसकी आयु में मुझे स्वंय
निवाला तोड़ना तक नहीं आता था।
बस माँ-बाप को नाज़-नखरे दिखाकर मैं,
जब बस्ता उठाकर बस स्कूल को जाता था। 

सुबह-सबेरे कम्पकम्पाती सर्दी में,
जब गाड़ी ब्लोअर के बगैर चलाने में,
मेरा शरीर ठिठुरता जा रहा था।
वह अबोध सा बालक,
पीठ पे कटा-फटा झौला टांगे,
कचरे के ढेर से कुछ निकाल,
भूखे खुद्दार पेट का जुगाड़ लगा रहा था।।

उसकी आयु में जब मैं अपनी मम्मी को,
अपने बैग का बोझ थमा रहा था,
अध्यापिका को सबक सुना रहा था,
और वह अबोध सा बालक,
अपने नन्हे कन्धों पर शायद,
परिवार की जिम्मेदारी का बोझ उठाए,
अपना मासूम बचपन गंवा रहा था।।

मेरे राष्ट्र का सुंदर भविष्य,
जो सकता था किसी प्रयोगशाला में,
वो कहाँ-कहाँ धक्के खा रहा है।
बहुत पीड़ा हुई ये देखकर,
वह अबोध सा बालक,
कचरे में बचपन गंवा रहा है।।

कविता - घर-घर की कहानी

इक पल है यहां चमक ख़ुशी की,
दूजे पल आँखों में पानी है,
खुशियां तो आनी-जानी है,
जीवन तो बहता पानी है,
क्या सुनाऊँ बात किसी की,
घर-घर की यही कहानी है। 

माँ-बाबा के प्रेम की खुशबु,
भाई-बहन का यहां प्यार है,
आपस में छोटी-मोटी,
नोकझोंक तो आनी-जानी है,
क्या सुनाऊँ बात किसी की,
घर-घर की यही कहानी है। 

एकल परिवारों का समय है आया,
रिश्तों-नातों की टूटती तानी है,
अपनों से जब दूर हो रहे,
क्या बचेंगे जज़्बात इंसानी हैं,
क्या सुनाऊँ बात किसी की,
घर-घर की यही कहानी है। 

- बोगल सृजन 

Thursday 8 March 2018

नमन

#नमन

माँ की ममता के आगे, 
है फीका कुल संसार।
बहन के स्नेह भरे नाते सी,
न दूजी कोई मिसाल।
पत्नी तो जीवन संगिनी है,
बिन उसके जीवन बेकार।
और बेटी की क्या बात बताऊँ,
वो तो जीवन आधार।
तू मित्र, सखी या सहकर्मी,
जिस रूप की चाहे मैं बात करूं,
नारी तेरी रूप को नमन व आभार।।

कविता - रहने दो मुझे इंसान

#रहने_दो_मुझे_इंसान 

बस नहीं चाहिए और मुझे,

देवी का जो दिया है स्थान।
बस नहीं चाहिए अब और मुझे,
कोरी बातें और कोरा ज्ञान।
राह किसी पे, मोड़ किसी पे,
कार्यक्षेत्र हो या शिक्षा संस्थान,
भद्दे शब्द और टिप्पणियां न चाहूँ,
चाहूँ बस अपना सम्मान,
न चाहूँ अब देवी का स्थान,
बस रहने दो मुझे इंसान।।

आज हूँ जो कुछ,

मेरे लिए न था आसान।
वर्षों के संघर्ष को अपने,
कैसे लगने दूँ आज विराम।
बहन किसी की, बेटी किसी की,
पर अपना भी रखती हूँ स्थान,
बाज़ारों में बिकने वाला, 
नहीं हूँ मैं कोई सामान,
न चाहूँ देवी का दर्जा,
बस रहने दो मुझे इंसान।।

चूल्हे-चौंके को छोड़ निकलना,

मेरे लिए आसान न था
गृहस्थी के साथ चलाना,
कार्यक्षेत्र आसान न था,
इतने संघर्षों के बनी हमारी,
कम न होने दूँगी मैं पहचान।
अब न सुनूंगी शब्द एक भी,
कहा गया जो अबला जान
न चाहूँ अब देवी का स्थान,
बस रहने दो मुझे इंसान।।

#बोगल_सृजन 











Wednesday 7 March 2018

कविता - मेरी माँ

वैसे तो बहुत हैं लोग मेरे खास,
जिनके लिए हृदय में हैं मधुर अहसास,
मगर फिर भी त्याग, समर्पण,
निःस्वार्थ प्रेम और दया की प्रतिमा,
मेरी माँ पर वार दूँ मैं अपनी हर साँस,
उनके प्रेम के आगे फ़ीका हर अहसास।।

उनकी आँखों ने नींद न देखी,
मेरे लिये भूली बैठी वो भूख और प्यास,
अपने सुख-दुख वो कहां सोचती,
मेरे सुख, आराम व खुशी की है उसे सदा आस,
मेरी माँ पर वार दूँ मैं अपनी हर साँस,
उनके प्रेम के आगे फ़ीका हर अहसास।।

मेरे प्रेम में खुद को भूली,भूली हर इक बात,
न शिकन, न कोई चिंता उनको दिन और रात।
मुँह से मैं बोलूँ न बोलूँ, पर जानूँ हर इक बात,
तेरा कर्ज़ चुका पाऊं माँ, मेरी न औकात।
मेरी माँ पर वार दूँ मैं अपनी हर इक साँस,
उनके प्रेम के आगे फ़ीका हर अहसास।।

© बोगल सृजन 

Sunday 4 March 2018

कविता - अभी-अभी

अभी-अभी मेरे मन में इक विचार आया है,
जैसे मेरे लहू में कोई उबाल आया है,
बाकी कुल दुनिया को छोड़,
कर्ज़ कुछ माँ-बाप के भी याद करलें,
अभी-अभी मेरे मन में ये ख्याल आया है,
जैसे मेरे लहू में कोई उबाल आया है।।

बचपन में किसी अनहोनी ज़िद के लिए,
जब भी मैं रोया चिल्लाया था,
अपनी हैसियत की चादर को लांघ कैसे,
माँ-बाबा ने हर बार मुझे वो सब दिलवाया था,
अभी-अभी मेरे मन में ये ख्याल आया है,
जैसे मेरे लहू में कोई उबाल आया है।।

वो माँ का मेरे हर बार रूठने पर मनाना,
अर्धनिद्रा में भी मुझे खाना खिलाना।
खुद पुराने व मुझे नए-नए कपड़े दिलवाना,
वो पापा का पाई-पाई मेरी शिक्षा पे लुटाना।
अभी-अभी मुझे फिर ये याद आया है,
जैसे मेरे लहू में कोई उबाल आया है।।

माँ-बाबा तो फ़र्ज़ निभा बैठे हैं,
मेरे हिस्से के तो अभी बाकी हैं,
कहाँ मैं कर्ज़ चुका पायउँगा मगर फिर भी
चंद लम्हें खुशियों के लौटा पाऊं अगर,
ये ख्वाहिश तो अभी बाकी है
अभी-अभी मेरे मन में ये ख्याल आया है,
जैसे मेरे लहू में कोई उबाल आया है।।

#बोगल_सृजन

Thursday 1 March 2018

कविता - प्रेम का गुलाल

सुना है मैंने बचपन से ही,
होली है त्यौहार प्यार का,
फ़िज़ा महकाते रंग-बिरंगे,
फाल्गुनी पुष्पों की बहार का,
जाती-धर्म का जो भेद न माने,
होली उत्सव है प्रेम भरे गुलाल का।

लिया है प्रण मैने खुद से एक कमाल,
कि होली खेलूंगा मैं तभी इस बार,
उड़ेगा बैंगनी, हरा, नीला और रंग लाल,
जब जात-धर्म का भेद भूलाकर,
मेरा कोई प्रिय गैर हिन्दू भाई,
आकर मुझको लगाएगा गुलाल।।