कई रातों की अनिद्रा
व छटपटाहट के बाद भी,
अपनी कविता में पिरोने के लिये,
कुछ शब्द जब मैं नहीं ढूँढ पाया,
मध्यमवर्गीय दिनचर्या से हटकर,
पेज 3 के मसालेदार समाचार छोड़,
मैंने किसानों का दर्द बयां करता,
अखबार का एक पन्ना उठाया।।
व छटपटाहट के बाद भी,
अपनी कविता में पिरोने के लिये,
कुछ शब्द जब मैं नहीं ढूँढ पाया,
मध्यमवर्गीय दिनचर्या से हटकर,
पेज 3 के मसालेदार समाचार छोड़,
मैंने किसानों का दर्द बयां करता,
अखबार का एक पन्ना उठाया।।
कर्ज़ के बोझ में जो डूबता जा रहा,
सल्फास को जिसने अपना सहारा बनाया।
देश के अन्नदाता की स्थिति जब पढ़ी मैंने,
तो दर्द से निकली अश्रुधारा मैं रोक नहीं पाया।
महंगे बीज व खाद का बोझ से बेहाल जो,
सूखे-बाढ़ के आतंक ने जिसे डराया।
अच्छी फसल पर भी पूरे पैसे कहाँ मिलते,
तभी तो सँग परिवार आज सड़कों पर आया।।
सल्फास को जिसने अपना सहारा बनाया।
देश के अन्नदाता की स्थिति जब पढ़ी मैंने,
तो दर्द से निकली अश्रुधारा मैं रोक नहीं पाया।
महंगे बीज व खाद का बोझ से बेहाल जो,
सूखे-बाढ़ के आतंक ने जिसे डराया।
अच्छी फसल पर भी पूरे पैसे कहाँ मिलते,
तभी तो सँग परिवार आज सड़कों पर आया।।
कटे-फ़टे पांव लिए मीलों का सफर करके,
हारकर जब किसान सड़कों पर उतर आया,
असंवेदनशीलता की पराकाष्ठा लाँघकर,
कइयों ने तब भी उनपर सवालिया निशान लगाया।
किसानों की वेदना, तड़प व मजबूरी न दिखकर,
किसी को इसमें कांग्रेस का एजेंडा,
तो किसी को लाल झंडा नज़र आया।
हाँ, कविता के शब्द ढूंढने को मैंने,
अखबार का जब वो पन्ना था उठाया।।
हारकर जब किसान सड़कों पर उतर आया,
असंवेदनशीलता की पराकाष्ठा लाँघकर,
कइयों ने तब भी उनपर सवालिया निशान लगाया।
किसानों की वेदना, तड़प व मजबूरी न दिखकर,
किसी को इसमें कांग्रेस का एजेंडा,
तो किसी को लाल झंडा नज़र आया।
हाँ, कविता के शब्द ढूंढने को मैंने,
अखबार का जब वो पन्ना था उठाया।।
- बोगल सृजन
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