क्योंकि झूठ व झूठों का बाज़ार गर्म है,
सत्यवक्ता असहाय महसूस कर रहे हैं
व सच साबित करना
आज इतना सरल कार्य नहीं,
वरना, दुबके रहना अपने ही भीतर,
भला किसे अच्छा लगता है?
वो लोग बड़े शौक से
मुझे पागल भी कह सकते हैं
जिने मेरे इस अहसास से
कोई इत्तफ़ाक़ नहीं होगा, मगर
बिना बात दुबके रहना अपने ही भीतर,
भला किसे अच्छा लगता है?
कइयों के स्वर विद्रोही हैं,
व कईयों ने हवा का रुख पहचान लिया,
मगर कई अभी भी बैठे हैं लगन से,
बेहतर समय की प्रतीक्षा में,
वरना, दुबके रहना अपने ही भीतर,
भला किसे अच्छा लगता है?
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