Thursday 25 May 2017

कविता - महिला सशस्तीकरण हो रहा है

कविता 

महिला सशस्तीकरण हो रहा है 

जीवन के हर क्षेत्र में 
पुरुषों को चुनौती देते देख 
अपने घरेलु कर्त्तव्यों को निभाने के बावजूद 
लगन और दक्षता से कार्य करते देख 
यकीन होने लगता है के 
महिला सशस्तीकरण हो रहा है 

किसी संगठन के प्रमुख के रूप में 
किसी बुद्धिजीवी के रूप में 
या किसी जिम्मेदार पद पर देख 
आधे ज़मीनो आसमाँ की मालिकों को 
अपने हकों के लिए लड़ते देख
यकीन होने लगता है के 
महिला सशस्तीकरण हो रहा है 

मगर जब बाजार व समाज आज भी 

महिलाओं को वस्तु मानता है 
मगर जब आज भी 
पुरुषों व महिलाओं के कामों
के बीच रेखा खींची जाती है 
तो यकीन धुंधला होने लगता है के 
महिला सशस्तीकरण हो रहा है 

मगर जब अकेली बच्ची 
लड़की या औरत को देख 
लार टपकाई जाती है 
इंसानियत जब वहशियत बन जाती है
तो यकीन धुंधला होने लगता है के 

महिला सशस्तीकरण हो रहा है 


मगर फिर भी महिलाओं को 
हर क्षेत्र में आगे तो बढ़ना होगा 
अपने अधिकार और सम्मान 
समाज से पाने के लिए  लड़ना होगा 
तभी हम कह पाएंगे सच में 
महिला सशस्तीकरण हो रहा है 


 स्वर्ण दीप बोगल

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