कविता - मेरी व्यथा
देवराज इंद्र के कपट की,
थी शिकार मैं फिर भी,
महर्षि कपिल द्वारा अभिशप्त,
मैं ही क्यों पाषाण हुई।
हाँ, अहिल्या ही थी तब मैं
रावण की कैद से अधिक,
पीड़ादायक अग्निपरीक्षा देकर भी,
बस एक उलाहने पर ही,
क्यों मैं ठुकराई गई।
हाँ, सीता ही थी तब मैं
क्या उम्मीद गैरों से रखती,
दुश्शासन को मैं दोष क्या देती,
जब धर्मराज युधिष्ठिर द्वारा ही,
सम्पत्ति जैसी मैं जुए में हारी गई।
हाँ, द्रौपदी ही थी तब मैं
भिन्न कालों के शाही पुरुषों का,
क्या-क्या मैं बखान करूं,
अन्तःपुरा हो या हरम कोई,
बन्द पर्दों में ही मैं छुपाई गई।
हाँ, शाही परिवार से ही थी मैं
कहीं जन्म लेते ही मृत्यु पाती,
मृत पति संग सती की जाती,
अरमानों का गला घोंटकर,
सब कुछ बस सहती ही जाती।
यही है इतिहास मेरा,
हाँ, एक स्त्री ही थी मैं
- स्वर्ण दीप बोगल
देवराज इंद्र के कपट की,
थी शिकार मैं फिर भी,
महर्षि कपिल द्वारा अभिशप्त,
मैं ही क्यों पाषाण हुई।
हाँ, अहिल्या ही थी तब मैं
रावण की कैद से अधिक,
पीड़ादायक अग्निपरीक्षा देकर भी,
बस एक उलाहने पर ही,
क्यों मैं ठुकराई गई।
हाँ, सीता ही थी तब मैं
क्या उम्मीद गैरों से रखती,
दुश्शासन को मैं दोष क्या देती,
जब धर्मराज युधिष्ठिर द्वारा ही,
सम्पत्ति जैसी मैं जुए में हारी गई।
हाँ, द्रौपदी ही थी तब मैं
भिन्न कालों के शाही पुरुषों का,
क्या-क्या मैं बखान करूं,
अन्तःपुरा हो या हरम कोई,
बन्द पर्दों में ही मैं छुपाई गई।
हाँ, शाही परिवार से ही थी मैं
कहीं जन्म लेते ही मृत्यु पाती,
मृत पति संग सती की जाती,
अरमानों का गला घोंटकर,
सब कुछ बस सहती ही जाती।
यही है इतिहास मेरा,
हाँ, एक स्त्री ही थी मैं
- स्वर्ण दीप बोगल