कविता - मज़दूर का दिन
सुखा पसीना कल का,
आधे अधूरे पेट से,
मैं निकल पड़ा हूँ आज,
फिर मज़दूरी बेचने।
परवाह न मुझे,
ठिठुराती सर्दी की
न ही मुझको,
झुलसाती गर्मी की
डरूं मगर मैं,
बेरहम बारिश से
कि कहीं दिहाड़ी
टूट न जाए
मेरे बच्चों को
मिलने वाली
रोटी का सपना भी
कहीं टूट न जाए
रोज़ कमाता हूँ
मैं रोज़ खाता हूँ
बचा के रखने के लायक
कहाँ कमा पाता हूँ
खून पसीना बहाता हूँ
बदले में क्या पाता हूँ
फिर भी मालिकों, ठेकेदारों की
झिड़कें मैं खाता हूँ
उनकी उम्मीद पर
खरा कैसे उतरूं मैं मज़दूर हूँ
कल फिर बेचने को
मज़दूरी कुछ बचाता हूँ
- स्वर्ण दीप बोगल
सुखा पसीना कल का,
आधे अधूरे पेट से,
मैं निकल पड़ा हूँ आज,
फिर मज़दूरी बेचने।
परवाह न मुझे,
ठिठुराती सर्दी की
न ही मुझको,
झुलसाती गर्मी की
डरूं मगर मैं,
बेरहम बारिश से
कि कहीं दिहाड़ी
टूट न जाए
मेरे बच्चों को
मिलने वाली
रोटी का सपना भी
कहीं टूट न जाए
रोज़ कमाता हूँ
मैं रोज़ खाता हूँ
बचा के रखने के लायक
कहाँ कमा पाता हूँ
खून पसीना बहाता हूँ
बदले में क्या पाता हूँ
फिर भी मालिकों, ठेकेदारों की
झिड़कें मैं खाता हूँ
उनकी उम्मीद पर
खरा कैसे उतरूं मैं मज़दूर हूँ
कल फिर बेचने को
मज़दूरी कुछ बचाता हूँ
- स्वर्ण दीप बोगल
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