Saturday 15 July 2017

कविता - क्या ये प्रेम है

कविता - क्या ये प्रेम है   

क्या सुनाऊँ मैं किस्सा-ए-उल्फ़त
ये वो शह नहीं जो कभी न सुनाई गई
हीर-रांझा हो या रोमियो-जूलिएट
हर दौर में हर समाज में ये दोहराई गई
इश्क़ लेने का नहीं जान देने का नाम है
ये बात भी इस जहां को बतलाई गयी
पाने खोने या जीत हार की यहां बात नहीं
बस दीदार-ए-यार को भी मिन्नतें उठाई गई

परिभाषा को प्रेम की लगता है

सबने ही आज भुलाया है
एक तरफा पसंद को ही बहुतों ने प्रेम बनाया है
अपने तक ही रखते इसको
तब भी तो कोई बात न थी
न सुनते ही आपा खोना ये क्या प्रेम तुम्हारा है
बस पाने की चाहत मन में 
इश्क़ को व्यापार बनाया है

प्रेम प्रस्ताव जो ठुकराया गया तो 
अनहोनी कोई बात नहीं 
तेज़ाब फैंककर पौरुष जतलाती 
इंसानों की ज़ात नहीं 
व्यक्तिगत पसंद भी कुछ है  
ये समझने की औकात नहीं 
न सुनकर बौखलाहट में 
हैवान हो जाना ठीक बात नहीं 

- स्वर्ण दीप बोगल 

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