Wednesday 5 July 2017

कविता - हाँ कलर्क हूँ मैं

कविता - हाँ कलर्क हूँ मैं

फाइलों में सदा दबा हुआ,
फिर भी निष्ठा से लगा हुआ,
सारा सारा दिन हर रोज़,
हाँ, कलर्क हूँ मैं,
कोई दोयम दर्जे का नागरिक नहीं।

राज्य हो या कोई भी विभाग,
अपनी सूझ बूझ से चलाने वाला,
हर काम को दिशा दिखाने वाला,
तभी तंत्र की रीढ़ कहलाने वाला,
हाँ, कलर्क हूँ मैं,
कोई दोयम दर्जे का नागरिक नहीं।

कभी दफ्तर में जल्दी जाता हूँ,
तो कभी देर से वापिस आता हूँ,
मेहनत ईमानदारी से काम करके भी,
अपने काम की पूरी इज़्ज़त कहाँ पाता हूँ,
हाँ, कलर्क हूँ मैं,
कोई दोयम दर्जे का नागरिक नहीं।

समान शैक्षणिक योग्यता व काम वाले
अन्य वर्गों से कम वेतन पाकर भी,
जिम्मेदारी से अपना कर्तव्य निभाकर भी,
जाने क्यों तिरस्करित नज़रें सहता हूँ,
हाँ, कलर्क हूँ मैं,
कोई दोयम दर्जे का नागरिक नहीं।

इंसान गलतियों का पुतला है, 
ये आप सब भी और मैं भी जानता हूँ,
मगर ग़लती ऊपर-नीचे कहीं भी हो,
बलि का बकरा मैं ही क्यों बन जाता हूँ,
हाँ, क्लर्क हूँ मैं,
कोई दोयम दर्जे का नागरिक नहीं।

माना हम में से कुछ पथभ्रष्ट होंगे,
हाँ, हो सकते है किसी वर्ग से भी,
मगर सभी को बदनाम करना,
ये कोई जायज़ बात तो नहीं,
हाँ, कलर्क हूँ मैं,
कोई दोयम दर्जे का नागरिक नहीं।

बहुत हुआ अब सहते सहते,
और न अब सह पाऊंगा,
सम्मानित जीवन व समान अधिकार
पाने को परचम बुलंद उठाऊंगा,
हाँ, कलर्क हूँ मैं,
कोई दोयम दर्जे का नागरिक नहीं।

- स्वर्ण दीप बोगल 

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