कविता - घर की इज़्ज़त
जब मुड़कर पीछे मैंने देखा
कि क्या पाया क्या खोया हमने
तो जाना कि बदलती परिस्थितियों में ,
जीवन जीने का तरीका बदला
इस पितृसत्तात्मक समाज का
हर रंग-रूप व ताना-बाना बदला
कुछ हालात मेरे भी बदले
पिंजड़ा भी कुछ कुछ तोड़ पायी मैं
फिर भी कुछ बातें मेरे प्रति
अभी तक प्रचलन में हैं
प्रतक्ष्य नहीं तो किताबों में सही
देवी मैं आज भी मानी जाती हूँ
आज भी हर घर समाज की मैं
इज़्ज़त ही मानी जाती हूँ
जिसे तार-तार करने में
विरोधी विजय समझते हैं
ये कैसी इज़्ज़त मेरी है
अब तक मैं समझ न पाती हूँ
जो बेजान सम्पत्ति जैसी
छुपाई व संभाली जाती हूँ
बहुत हुआ अब सहते सहते
अब इतना तो अहसान करो
न वस्तु हूँ और न कोई देवी
बस मनुष्यों सा व्यवहार करो
-स्वर्ण दीप बोगल
जब मुड़कर पीछे मैंने देखा
कि क्या पाया क्या खोया हमने
तो जाना कि बदलती परिस्थितियों में ,
जीवन जीने का तरीका बदला
इस पितृसत्तात्मक समाज का
हर रंग-रूप व ताना-बाना बदला
कुछ हालात मेरे भी बदले
पिंजड़ा भी कुछ कुछ तोड़ पायी मैं
फिर भी कुछ बातें मेरे प्रति
अभी तक प्रचलन में हैं
प्रतक्ष्य नहीं तो किताबों में सही
देवी मैं आज भी मानी जाती हूँ
आज भी हर घर समाज की मैं
इज़्ज़त ही मानी जाती हूँ
जिसे तार-तार करने में
विरोधी विजय समझते हैं
ये कैसी इज़्ज़त मेरी है
अब तक मैं समझ न पाती हूँ
जो बेजान सम्पत्ति जैसी
छुपाई व संभाली जाती हूँ
बहुत हुआ अब सहते सहते
अब इतना तो अहसान करो
न वस्तु हूँ और न कोई देवी
बस मनुष्यों सा व्यवहार करो
-स्वर्ण दीप बोगल
Beautifully expressed patriachial thinking of soceity.
ReplyDeleteThanks fr ur appreciation dear
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