Wednesday 26 July 2017

कविता - लाचार बचपन

कविता - लाचार बचपन

बेमानी सी लगती है मुझे,
चहुँ ओर फैली चकाचौंध,
विकास के नाम पर बनती
बड़ी-२ गगनचुंबी इमारतें,
व विशाल शॉपिंग मॉल्स,
जब मासूम बच्चों को नालियों में,
कूड़ा बीनते हुए देखता हूँ।

वैसे तो लगता है कि
करली तरक्की हमने बहुत,
महंगे होटलों में जब जाते हैं,
दावतें जब हम उड़ाते हैं,
मगर सिहर उठता हूँ अंदर तक मैं,
जब मासूम बच्चों को कूड़ेदानों से,
बचा-खुचा खाना चुनते देखता हूँ।

विकास के नाम पर की गई,
हर बात तब मुझे निरर्थक लगती है,
जब इस महान राष्ट्र के भविष्य को,
मासूम अबोध बालकों को, 
एक एक दाने के लिए,
अपने लिए और अपने परिवार के लिए,
मैं इतना लाचार देखता हूँ

कैसे मानूं कि तरक्की करली बहुत,
जब तक एक भी मासूम बचपन मजबूर है,
नालियों से कूड़ा चुनने को,
विद्यालयों में पढ़ाई करने के स्थान पर,
मेहनत मशक्कत व मज़दूरी करने को,
भूखे पेट की आग बुझाने के लिए,
दर-दर ठोकरें खाने को।।

- स्वर्ण दीप बोगल

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