Thursday 29 June 2017

कविता - समझ जीवन जीने की


जब था बचपन तो हमें लगता था,  
शायद विद्यालय की पढ़ाई पूरी करके, 
हमें आ जाएगी समझ जीवन जीने की।   

जब कॉलेज गए तो लगा कि, 

शायद ग्रेजुएट या पोस्टग्रेजुएट होकर ही, 
हमें आ जाएगी समझ जीवन जीने की।   

पर ये समझने में समय लगा कि, 
जीवन जीने की समझ, 
किसी एक किताब में नहीं। 

समय लगा समझने में कि,
यह किसी एक दिन की बात नहीं, 
बल्कि जीवन पर्यन्त निरंतर प्रक्रिया है। 

समय लगा समझने में की,
ज़िन्दगी हर रोज़ हमें,
नित नया पाठ पढ़ाती है उसे समझने के लिए।।

- स्वर्ण दीप बोगल 





बारिश

बारिश 

पक्के मकानों में रहकर
चाय पकोड़े के साथ
बारिश का लुत्फ लेने वाले
हम लोग क्या समझें
कि यही बारिश कइयों के
घरोंदे भी उजाड़ जाती है।

Tuesday 27 June 2017

कविता - झूठ का कारोबार

कविता - झूठ का कारोबार

कुछ इस तरह फैला है 
झूठ का कारोबार
कि कोई सच भी बोले अगर अब
तो झूठ ही लगता है 

कोई भाषण देते बोलता है 
तो  कोई राशन देते हुए 
कोई सड़कों पे बोलता है 
तो कोई बंद दरवाज़ों में 
पर निरंतर जारी है झूठ का प्रचार

घरों में भी जारी है
तो कार्यस्थलों पर भी है
पर्दों में भी है 
तो ज़ाहिर भी है
चलता धड़ल्ले से झूठ का व्यापार

माँ बाप बच्चों से बोलते है 
तो बच्चे माँ बाप से 
आपसी विश्वास का मिट रहा आधार 
कुछ इस तरह फैला है 
झूठ का कारोबार

झूठ का बोलबाला है
तो सच्चाई का साथ देने वाले का
पड़ता मुसीबतों से पाला है
इसलिये तो फैला है झूठ का जंजाल

हर ओर खुशियां ही खुशियां
प्रगति और विकास दिखे चहुँ ओर
जो है सच्चाई से कोसों दूर
कुछ इस तरह फैला झूठ की भ्रमजाल 
कि कोई सच भी बोले अगर अब
तो झूठ ही लगता है 

- स्वर्ण दीप बोगल

Saturday 24 June 2017

कविता - छाओं की तलाश

कविता - छाओं की तलाश 

बच्चे की गाडी की प्रतीक्षा करते 
गर्मी की एक दोपहरी में 
मैं झुलस रहा था गर्मी में 
तब घूर रहा था सूरज मुझको
चिलचिलाती आँखों से  

जब ढूंढती मेरी आँखों को 

छाओं मिली ना दूर तलक
जब वृक्ष तो क्या इक पौधे की 
झलक मिली ना दूर तलक 

तब सहसा वृक्षों के होने का    
महत्त्व मुझको याद आया 
तब सहसा मुझको पर्यावरण पर 
पढ़कर भूला 
हर इक पाठ याद आया 

तब याद आये वो भी दिन 
जब सड़क किनारे धूप में 
ठंडक देते थे वो पेड़ 
जो काट दिए गए थे 
सड़क चौड़ी करने के समय  

फिर याद आये मुझे वो भी दिन 
जब बच न सके 
बिन पानी के 
सड़क किनारे वो पौधे नन्हे 

अब किसको हम फ़रियाद करें 
जब अपनी जिम्मेवारी है 
तो आओ ये संकल्प करें 
कि हरियाली लाने का  
निरंतर हम प्रयत्न करें 


- स्वर्ण दीप बोगल 

कविता - भूल जाना

कविता - भूल जाना 

माना बातें भूल जाना 
समस्या है मेरी,
फिर भी इसके साथ ही 
जीना सीख लिया है मैंने

माना कार्यक्षेत्र में
परेशान करती है यह समस्या
फिर भी इसके साथ ही 
जीना सीख लिया है मैंने


माना घरेलु जीवन में 
और रिश्ते निभाने में भी 
परेशान करती है यह समस्या
फिर भी इसके साथ ही 
जीना सीख लिया है मैंने

मगर कभी मेरी ये समस्या 
मुझे वरदान लगती है 
जब जब मैं भूल जाता हूँ नफ़रतें 
और किसी से ख़फ़ा होने की वजह

मेरी समस्या मुझे वरदान लगती है 
जब जब मैं भूल जाता हूँ कि 
मेरे साथ किसने बुरा किया था 
और मैं किससे नाराज़ था।  

- स्वर्ण दीप बोगल 

Friday 23 June 2017

#MovieReview #TubeLight (2017)


Today we are here with the review of much awaited release on Eid i.e. Salman Khan’s TUBELIGHT (2017) released this Friday. Inspired by Hollywood movie Little Brother, TubeLight is directed by Kabir Khan and has the Salman Khan, Sohail Khan, Chinese actress Zhu Zhu, Late Om Puri in lead roles.

PLOT:

It is a period film draws back the time of 1962, the time of Sino-Indian war. Its a story of two borhter and one among them is Laxman Singh Bisht(Salman Khan), a slow-witted person, who grows up under the protection of his loveable and caring younger brother Bharat Singh Bisht (Sohail Khan) in a small town Jagatpur in Kumaon. While others always tease Laxman and bully him and call him Tubelight whileas Bharat shuts them up and protect his brother always and call him Captain.

When Indo-China war broke out, Bharat and other youngsters from the town join the Indian Army and go to the front for battle. Laxman also tries to join Army but fails the physical test and as such stays back home. Due to Bharat’s joining Indian Army, Laxman is left all alone, and its very difficult for him to sustain as he is very innocent and not able to protect himself.

An Indian woman of Chinese origin Lee Ling (Zhu Zhu) comes from Calcutta to stay in the same town with her little son Guwo (Matin Ray Tangu). While being Chinese, Laxman hates them at first, but he is forced to follow the Gandhian principle of befriending enemy by Banne Chacha (Om Puri). Accordingly, Lee and Guwo turn Laxman’s only friends in a place where all others were mostly teasing or unkind in their approach towards him.

Laxman kept enquiring from the army chief posted in their city about the whereabout and well being of Bharat to which he doesn’t get the suitable reply. Banne Chacha tells him that faith can even move mountains, which Laxman being innocent, takes seriously and tries to do that. Moreover, Laxman also kept believing that his brother, who has been captured by Chinese Army, will return from the battle front and declares that he will get Bharat back with his ‘YAKEEN’.

ANALYSIS:
The concept of the movie is good in today’s time when every now and then there is a demand for nationality certificate by one way or other but with minor changes in Little Boy, Tubelight doen’t inspires us and script looks weak and doesn’t look like a movie type.

I didn’t get what filmmaker want to prove when Laxman tried to move the mountain with his faith, doesn’t it sounds stupid in real life. I mean there are countless ways to teach the power of faith. Moreover, there is now comparison between Kabir Khan’s Bajrangi Bhaijaan & this one. There many unnecessary characters in the movie.

The movie also fails to make an emotional connect with audiences unlike Bajrangi Bhaijaan. Some scenes are hilarious such as Laxman’s calling Guwoo and Goo through the film, or his apologizing to the temple priest, his schoolmaster and an elderly woman for his mischieves committed in childhood. But overall Salman fails to enact or sometimes overact innocent Laxman.

Movie also seems stretched specially in the second half and also climax is predictable. Salman’s act in the last scene to bring Bharat to sense, reminded me of Kamal Haasan’s act in Sadma to make Sridevi recognize him.

One more thing is undigestable that how such bulky one like Bharat (Sohail Khan) is able to join army, he must have done some hardwork to curtail his belly to perform this role. Music is also not that good and some songs were unnecessary in the film.

WHAT’S GOOD:
Some songs, Salman’s act in the last scene, beautiful camerawork and Shahrukh’s cameo.

NOT GOOD:
Weak script, mixed performances, predictable climax and lack of emotional connect.

STAR PERFORMANCES:
This one is not the best performance of Salman Khan. Good chemistry with his buddy Sohail and the last scene of the movie is also beautifully performed. Sohail Khan has a very average performance with literally no expression. Chinese actress Zhu Zhu and child actor Matin Ray Tangu played their part with perfection as much as role they have. Late Om Puri also delivers a good performance.

FINAL WORDS:
Unlike its name Tubelight flickers but fails to shine and as such, fails to make an impact. MAJA NAHI AAYAA YAAR.....

My ratings for this movie is 2 out of 5 stars.

So keep following the page, good day till the next review

कविता - भीड़ और क़ानून

कविता - भीड़ और क़ानून 

सदियों के संघर्ष के बाद, 
पशुओं से पहचान अलग बनाई थी हमने।
असंख्य जाने गँवाकर, 
दासप्रथा से राजशाही की, 
व राजशाही से लोकतंत्र की लौ जगाई थी हमने। 
क़ानून द्वारा स्थापित अधिकार पाने के लिए,
क्या-क्या न कष्ट उठाए थे हमने।

मगर ऐसा क्या हुआ कि,

प्राचीनतम सभ्यता होने का दम भरने वाले,
असभ्य होते जा रहे हैं ?
क्यों प्रेम, शान्ति व भाईचारे को मानने वाले,
नफरत व हिंसा को अपना रहे हैं। 
क्यों क़ानून पर जनता का विशवास टूट रहा है, 
और क्यों भीड़ क़ानून हाथ में लेने पर आदि है ?


- स्वर्ण दीप बोगल 


Thursday 22 June 2017

कविता - माना के इक ज़र्रा हूँ

कविता - माना के इक ज़र्रा हूँ 

माना के इक ज़र्रा हूँ,
अथाह सागर में गोते खाता,
पानी का एक कतरा हूँ,
फिर भी मेरे अस्तित्व को,
इतना कम भी मत आंकिये,
क्योंकि क़भी क़भी एक चींटी भी,
बड़े हाथी पर भारी पड़ती सकती है

माना कद में छोटा हूँ,

ताकत में कमज़ोर सही,
महत्वहीन ही लगता हूँ,
पर इसका मुझको अफ़सोस नहीं, 
क्योंकि क़भी क़भी एक चींटी भी,
बड़े हाथी पर भारी पड़ती सकती है

क़तरे क़तरे बारिश से ही, 
नदियां, तालाब, सागर बने, 
ईंट ईंट के जुड़ने से, 
भव्य भवन महान बने, 
छोटा बड़ा या कुछ भी हो, 
हर इक की यहां ज़रुरत है 
तो खुशफ़हमी में जीने वालो,
इतना तो स्मरण रहे, 
कि क़भी क़भी एक चींटी भी,
बड़े हाथी पर भारी पड़ती सकती है

- स्वर्ण दीप बोगल 

Monday 19 June 2017

कविता - वक़्त नहीं है

कविता - वक़्त नहीं है 

बड़ा व्यस्त हूँ मैं अपनी रोज़ मर्रा की भाग-दौड़ में,
इसलिए माफ़ करना ऐ ज़िन्दगी,
नफ़रतें पालने का मेरे पास वक़्त नहीं है 
कुछ कार्यक्षेत्र की मसरूफियतें हैं 
तो कुछ परेशानियां घरेलु भी हैं 
इसलिए माफ़ करना ऐ ज़िन्दगी,
नफ़रतें पालने का मेरे पास वक़्त नहीं है 

अपनी निजी व्यस्तताओं को छोड़ 
कुछ जिम्मेदारियाँ सामाजिक भी हैं 
क्योंकि माहौल भी कुछ अराजक सा है 
इसलिए माफ़ करना ऐ ज़िन्दगी,
नफ़रतें पालने का मेरे पास वक़्त नहीं है 

गर बाँटूंगा नफ़रतें 
तो न मिलेंगे बदले में प्यार के फूल
नफरत का मैल अपने दिल में रखने की 
क्यों करूँ मैं भूल 
इसलिए माफ़ करना ऐ ज़िन्दगी,
नफ़रतें पालने का मेरे पास वक़्त नहीं है 

- स्वर्ण दीप बोगल 

Sunday 18 June 2017

कविता - क्रिकेट और देशभक्ति

कविता - क्रिकेट और देशभक्ति


क्रिकेट से देशभक्ति नापने का
ये कैसा पैमाना है
सरहदों की जंग नहीं 
दिलों को जोड़ने वाला खेल है,
ये किसने हमें समझाना है।
क्रिकेट से देशभक्ति नापने का
ये कैसा पैमाना है

खेल तो खेल है, 
इसमें किसी ने क्या कर पाना है
एक की जीत तो
दूसरे ने हार जाना है
क्रिकेट से देशभक्ति नापने का
ये कैसा पैमाना है

आपने देशप्रेम गर सब को बताना है
क्रिकेट का तो न चलना बहाना है
देश तो मांगे आपकी निष्ठा का आधार
मेहनत व ईमानदारी की देश को दरकार
इसीलिए झूठी देशभक्ति का न चलना बहाना है
क्रिकेट से देशभक्ति नापने का
ये कैसा पैमाना है

- स्वर्ण दीप बोगल

Saturday 17 June 2017

कविता - एक पिता की व्यथा

कविता - एक पिता की व्यथा 

बहुतेरे मुझे तंगदिल,
तो कई मुझे 
पत्थरदिल मानते होंगे।
कोई मुझे पुराने ख्यालों का,
तो कई मुझे बेटी-बेटे में
फर्क समझने वाला मानते होंगे।

माना सही होंगे वे लोग 
क्योंकि,
अपनी बेटी को बड़े शहर में 
पढ़ने भेजने से रोका था मैंने 
हाँ उसके सपनों को 
पंख लगने से पहले ही
चकनाचूर किया था मैंने 

कोई माने ना माने 
मगर अपनी गुड़िया के दर्द को 
हाँ उसके दर्द को महसूस करता हूँ मैं 
 मगर बड़े शहरों में बेटियों पर बढ़ती 
हैवानियत को देख डरता हूँ मैं 
कैसे रोक पाऊँगा 
उसकी तरफ पड़ती बुरी नज़र को 
इक बाप हूँ कोई सुपरहीरो नहीं 
ये सोच तिल तिल मरता हूँ मैं 

मानता हूँ मेरे डर ने ही  
मेरी बच्ची के भविष्य को दी है तिलांजलि 
मगर बड़े शहरों में 
पढ़ती व काम करती बच्चियों पर 
बढ़ते अपराधों को देख भयभीत हूँ मैं 

मगर इस मानसिकता को 
कभी तो बदलना होगा 
सिर्फ बराबरी की बात करने से नहीं 
घर और बाहर औरतों को अलग अलग 
चश्मों से देखने वाले भद्र पुरुषों को 
सभी औरतों को समान आदर देना होगा
शिक्षा से महरूम हर बच्ची को
अपना अधिकार देना होगा।

- स्वर्ण दीप बोगल 

कविता - अच्छे दिनों की उम्मीद

कविता - अच्छे दिनों की उम्मीद

मैंने धूप न देखी
न देखी लंबी लाइन
मैने तोड़ी दिहाडी
ताकि कर सकूं मतदान
फिर एक बार,
वही अच्छे दिनों की उम्मीद लिए

गरीबी और महंगाई से
भ्रष्टाचार के कोढ़ से
मैं था परेशान
इसीलिए फिर करने चल पड़ा मतदान
अच्छे दिनों की उम्मीद लिए

सम्मानित जीवन की चाह में
काम के बेहतर अवसरों की उम्मीद लिए
पारदर्शी माहौल की आस में
बेहतर शिक्षा व स्वास्थ्य सुविधाओं के लिए
फिर करने चल पड़ा मतदान
अच्छे दिनों की उम्मीद लिए

मगर अच्छे दिनों का इंतजार
अब लंबा हो चला है
एक एक वादा अब धुंधला लग रहा है
लगता है फिर से शुरू होगा वही खेल
एक नए मतदान से
अच्छे दिनों की उम्मीद लिए

- स्वर्ण दीप बोग़ल

Wednesday 14 June 2017

कविता - चंद पंक्तियाँ कुदरत पे

कविता - चंद पंक्तियाँ कुदरत पे 

एक दिन,
मुझे सहसा ही ख्याल आया
कि चंद पंक्तियाँ 
कुदरत के नज़ारों पर लिखी जाएं

जो देते हैं हमें 
सांस लेने के लिए हवा
चंद पंक्तियाँ 
उन वृक्षों पर भी लिखी जाएं

जिनकी वजह हैं हमें 
मिलता है पानी पीने के लिए
चंद पंक्तियाँ
उन नदियों व झरनों पर भी लिखी जाएं
जहाँ से प्राप्त होता है हमें
फल सब्जियां व अनाज
चंद पंक्तियाँ 
उन खेत खलिहानों पर भी लिखी जाएं

तो मैं निकल पड़ा घर से 
ताकि कुदरत की गोद में
बैठ कर कुछ लिखा जाए

मगर विकास के नाम पर
अपनी साँसों को दांव पर रखकर कटते
और सिर्फ पर्यावरण दिवस पर चर्चा में दिखते
हरे भरे वृक्षों के बारे में क्या लिखा जाए

मगर थोड़े से लालच के नाम पर
बिना किसी प्यासे की परवाह किये
तबाह होती फसलों की परवाह किये
दूषित होती
ज़हरीली नदियों व नहरों के बारे में क्या लिखा जाए

खत्म होती हरियाली,
औऱ बढ़ते कंक्रीट के जंगलों को देख
घुलते ग्लेशियरों को
और बढ़ते तापमान को देखकर
समझ नही आता
की कुदरत के नज़ारों के बारे में क्या लिखा जाए

- स्वर्ण दीप बोग़ल






Friday 9 June 2017

MovieReview - Raabta



                                   #MovieReview #Raabta (2017)


Today we are here with the review of one of the movie released this week namely RAABTA (2017) starring Sushant Singh Rajput, Kriti Sanon, Jim Sarbh, Rajkumar Rao & Varun Sharma in lead roles. Movie is directed by debutant director  Dinesh Vijan.

PLOT:
Lover boy (Sushant), who went to Budapest through his bank accidently met Saira (Kriti Sanon) in her Chocolate shop, when he was on date with some other girl and he falls for Saira there only. They quickly falls in love with each other (Befikre types).

Then the third character Zakir Merchant (Jim Sarbh), a liquor barron came in their life and kidnaps Saira and take her to his private island as he loves her.  Then Saira starts thinking about her bond with Shiv seems beyond the limitations of time and decades and then in her dreams we are taken past to these three characters when the warrior falls  in love with the brave princess. But is the connection between all these lies in the movie.

ANALYSIS:
Lovely looking couple of Sushant Singh Rajput and Kriti Sanon looked good together but there is hardly any chemistry. From the opening scene itself Sushant failed to impress us with his uncomfortable Punjabi ascent dialogues. I don’t know why the hell filmmaker let him speak Punjabi when he was uncomfortable.

One more thing which kept bothering me is that till when bollywood filmmakers will go on with playboy type characters of lead males and what point they want to prove in front of the youths of the country. Overall I can say that there is nothing wrong in the story of Punarjanam but problem is with execution. Warrior version of the movie looked good to me.

WHAT’S GOOD:
Warrior look of Sushant Singh Rajput and may be one or two songs.

NOT GOOD:
Bad execution of story and loosely written dialogues.

STAR PERFORMANCES:
One of the weakest of all performances of Sushant Singh Rajput till date. He fumbled with Punjabi. He doesn’t looked good doing humour. Kriti looked cute but failed to impress with her acting. The intense look of Jim Sarbh is good but his poorly written character and dialogues are pathetic. VArun Sharma is a good support. Raj Kumar Rao was really not recongizable.

FINAL WORDS:
Not like Sushant’s earlier movies but u you bear it....

My ratings for this movie is 1.8 out of 5 stars.

So keep following the page, good day till the next review

Thursday 8 June 2017

कविता - किसान आंदोलन

कविता - किसान आंदोलन 

दशकों की मैं तोड़ के चुप्पी,
गर आया हूँ अब सड़कों पर, 
यकीं मानिये लिए बिना कुछ,
वापिस तो न जाऊंगा। 

सहज नहीं था मेरे लिए भी,
निकल खेत खलिहानों से 
यूँ सड़कों पे चिल्लाना, 
भूखे बिलखते छोड़ के बच्चे,
पुलिस की मारें  खा जाना। 

पर कब तक सहता, 
आधे भूखे आधे नंगे 
बच्चों की किलकारी को,
कब तक सहता, 
पल पल बढ़ते कर्ज़े की तलवारी को। 

मुझे लगा था 
सड़कों से तो दशा हमारी,
जनता को दिख पाएगी, 
क्यों आये हम सड़कों पे, 
जनता तो जान पायेगी । 

मगर राजनीति करने वालों से, 
फिर से हैं हम हार रहे, 
कभी भाजपा, कभी कांग्रेस, 
किसान ही नहीं हमें मान रहे।  

हम मेहनककश, सरकारों से, 
ज़्यादा न कुछ मांग रहे, 
पुलिस की गोली बिलकुल नहीं,
पर सम्मानित जीवन मांग रहे।  

पा ना सका गर अधिकारों को, 
वापिस तो न जा पाऊंगा। 
किसान आत्महत्या के असंख्य क्रम में, 
वृद्धि ही कर पायूँगा।।

- स्वर्ण दीप बोगल 

Wednesday 7 June 2017

कविता - मेरी प्रेरणा

कविता

मेरी प्रेरणा

कभी कभी थक जाता हूँ
रोज़ाना दफ्तर की फाइलों 
की खाक छान छान कर
वही कुर्सी वही टेबल देख देखकर

कभी मैं निराश हो जाता हूँ
अपने काम से दफ्तर आये 
लोगों के चेहरों की मायूसी देखकर
उनके काम न कर पाने की 
अपनी असमर्थता सोचकर

कभी मैं ऊब जाता हूँ
ज़िन्दगी की कश्मकश देखकर
रोज़मर्रा की परेशानियां झेलकर
कभी न खत्म होने वाली
ज़िन्दगी की दौड़ दौड़ते दौड़ते

कभी मैं बहुत आहत होता हूँ
जब लोगों को अपने कर्तव्यों
की अवहेलना करते देखता हूँ
झूठ बेईमानी व भ्रष्टाचार पे
भाषण देने वालों को 
इन्ही सब में लिप्त देखता हूँ

जब बस टूटने को होता हूँ
इन सब बातों से हो परेशान
तो देखता हूँ सूर्य को
देते हुए उजाला व ऊष्णता सबको
बिना किसी राग द्वेष या भेद भाव के
निरंतर सदियों  से कर्मठ भाव से

जब देखता हूँ मधुमखियों को 
पुष्पों से शहद बटोरते 
बिना चोरी होने के भय से

जब देखता हूँ चिड़िया को
एक एक तिनका चुन घोंसला बनाते
बार बार तोड़े जाने के बावजूद

तो मैं प्रेरित होता हूँ
फिर से नई ऊर्जा से 
अपने कर्तव्यों का निर्वाहन करने को
किसी नकारात्मकता से प्रभावित हुए बिना
हर मुश्किल का सामना करने को

- स्वर्ण दीप बोग़ल

Monday 5 June 2017

कविता - कर्तव्य और अधिकार

कविता 

कर्तव्य और अधिकार 

बच्चे को माँ बाप से, 
तो विद्यार्थी को अध्यापक से,
चाहिए अपने अधिकार। 

भँवरे को पुष्पों से रस लेने का,
तो पंशियों को नभ में उन्मुक्त उड़ने को,
चाहिए अपने अधिकार। 

पत्नी को अपने पति से,
तो बहु को ससुराल से,
चाहिए अपने अधिकार।

कर्मचारी को प्रशासन से,
तो नागरिकों तो सरकारों से,
चाहिए अपने अधिकार।

किसी को पढ़ने का, 
तो किसी को स्वतंत्रता से बात रखने को, 
चाहिए अपने अधिकार।

मैं यह मानता हूँ कि 
बिना राग द्वेष, रंग रूप, जात पात व धर्म के 
समाज के हर प्राणी को 
मिलने चाहिए अपने मूलभूत अधिकार।

मगर बात सोचने की ज़रूर है 
कि क्या उन अधिकारों को पाने के लिए 
नहीं चाहिए कर्तव्यों का आधार।

- स्वर्ण दीप बोगल 

Saturday 3 June 2017

कविता - ये इन्साफ तो नहीं

कविता 

ये इन्साफ तो नहीं 

माना गरीब के घर होना पैदा
किस्मत ही थी मेरी
तुम महंगे स्कूल और मैं सरकारी स्कूल 
फिर भी माना पढ़ाई न कर पाना 
लापरवाही ही थी मेरी
माना वातानुकूलित दफ्तर तुम्हारे  
और बदन झुलसाने वाली गर्मी में 
खेतों में काम करना आदत है मेरी
माना दिमागी कसरत काम तुम्हारा 
और हाड तोड़ मेहनत तकदीर है मेरी

मगर फिर भी 
विलासता में डूबे तुमऔर 
भूख से बिलखते मुझ अन्नदाता के बच्चे 
ये इन्साफ तो नहीं 
सुख सुविधाओं से भरपूर तुम और 
क़र्ज़ में डूबा फांसी का फंदा तलाशता मैं 
ये इन्साफ तो नहीं 
ड्राइंग रूम में टीवी चैनल मरोड़ते तुम 
और अपने हकों के लिए 
सड़कों पर पुलिस के डंडे खाता मैं 
ये इन्साफ तो नहीं 

- स्वर्ण दीप बोगल