Friday 23 June 2017

कविता - भीड़ और क़ानून

कविता - भीड़ और क़ानून 

सदियों के संघर्ष के बाद, 
पशुओं से पहचान अलग बनाई थी हमने।
असंख्य जाने गँवाकर, 
दासप्रथा से राजशाही की, 
व राजशाही से लोकतंत्र की लौ जगाई थी हमने। 
क़ानून द्वारा स्थापित अधिकार पाने के लिए,
क्या-क्या न कष्ट उठाए थे हमने।

मगर ऐसा क्या हुआ कि,

प्राचीनतम सभ्यता होने का दम भरने वाले,
असभ्य होते जा रहे हैं ?
क्यों प्रेम, शान्ति व भाईचारे को मानने वाले,
नफरत व हिंसा को अपना रहे हैं। 
क्यों क़ानून पर जनता का विशवास टूट रहा है, 
और क्यों भीड़ क़ानून हाथ में लेने पर आदि है ?


- स्वर्ण दीप बोगल 


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