कविता - भीड़ और क़ानून
सदियों के संघर्ष के बाद,
पशुओं से पहचान अलग बनाई थी हमने।
असंख्य जाने गँवाकर,
दासप्रथा से राजशाही की,
व राजशाही से लोकतंत्र की लौ जगाई थी हमने।
क़ानून द्वारा स्थापित अधिकार पाने के लिए,
क्या-क्या न कष्ट उठाए थे हमने।
मगर ऐसा क्या हुआ कि,
प्राचीनतम सभ्यता होने का दम भरने वाले,
असभ्य होते जा रहे हैं ?
क्यों प्रेम, शान्ति व भाईचारे को मानने वाले,
नफरत व हिंसा को अपना रहे हैं।
क्यों क़ानून पर जनता का विशवास टूट रहा है,
और क्यों भीड़ क़ानून हाथ में लेने पर आदि है ?
- स्वर्ण दीप बोगल
सदियों के संघर्ष के बाद,
पशुओं से पहचान अलग बनाई थी हमने।
असंख्य जाने गँवाकर,
दासप्रथा से राजशाही की,
व राजशाही से लोकतंत्र की लौ जगाई थी हमने।
क़ानून द्वारा स्थापित अधिकार पाने के लिए,
क्या-क्या न कष्ट उठाए थे हमने।
मगर ऐसा क्या हुआ कि,
प्राचीनतम सभ्यता होने का दम भरने वाले,
असभ्य होते जा रहे हैं ?
क्यों प्रेम, शान्ति व भाईचारे को मानने वाले,
नफरत व हिंसा को अपना रहे हैं।
क्यों क़ानून पर जनता का विशवास टूट रहा है,
और क्यों भीड़ क़ानून हाथ में लेने पर आदि है ?
- स्वर्ण दीप बोगल
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