Saturday 17 June 2017

कविता - एक पिता की व्यथा

कविता - एक पिता की व्यथा 

बहुतेरे मुझे तंगदिल,
तो कई मुझे 
पत्थरदिल मानते होंगे।
कोई मुझे पुराने ख्यालों का,
तो कई मुझे बेटी-बेटे में
फर्क समझने वाला मानते होंगे।

माना सही होंगे वे लोग 
क्योंकि,
अपनी बेटी को बड़े शहर में 
पढ़ने भेजने से रोका था मैंने 
हाँ उसके सपनों को 
पंख लगने से पहले ही
चकनाचूर किया था मैंने 

कोई माने ना माने 
मगर अपनी गुड़िया के दर्द को 
हाँ उसके दर्द को महसूस करता हूँ मैं 
 मगर बड़े शहरों में बेटियों पर बढ़ती 
हैवानियत को देख डरता हूँ मैं 
कैसे रोक पाऊँगा 
उसकी तरफ पड़ती बुरी नज़र को 
इक बाप हूँ कोई सुपरहीरो नहीं 
ये सोच तिल तिल मरता हूँ मैं 

मानता हूँ मेरे डर ने ही  
मेरी बच्ची के भविष्य को दी है तिलांजलि 
मगर बड़े शहरों में 
पढ़ती व काम करती बच्चियों पर 
बढ़ते अपराधों को देख भयभीत हूँ मैं 

मगर इस मानसिकता को 
कभी तो बदलना होगा 
सिर्फ बराबरी की बात करने से नहीं 
घर और बाहर औरतों को अलग अलग 
चश्मों से देखने वाले भद्र पुरुषों को 
सभी औरतों को समान आदर देना होगा
शिक्षा से महरूम हर बच्ची को
अपना अधिकार देना होगा।

- स्वर्ण दीप बोगल 

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