कविता - किसान आंदोलन
दशकों की मैं तोड़ के चुप्पी,
गर आया हूँ अब सड़कों पर,
यकीं मानिये लिए बिना कुछ,
वापिस तो न जाऊंगा।
सहज नहीं था मेरे लिए भी,
निकल खेत खलिहानों से
यूँ सड़कों पे चिल्लाना,
भूखे बिलखते छोड़ के बच्चे,
पुलिस की मारें खा जाना।
पर कब तक सहता,
आधे भूखे आधे नंगे
बच्चों की किलकारी को,
कब तक सहता,
पल पल बढ़ते कर्ज़े की तलवारी को।
दशकों की मैं तोड़ के चुप्पी,
गर आया हूँ अब सड़कों पर,
यकीं मानिये लिए बिना कुछ,
वापिस तो न जाऊंगा।
सहज नहीं था मेरे लिए भी,
निकल खेत खलिहानों से
यूँ सड़कों पे चिल्लाना,
भूखे बिलखते छोड़ के बच्चे,
पुलिस की मारें खा जाना।
पर कब तक सहता,
आधे भूखे आधे नंगे
बच्चों की किलकारी को,
कब तक सहता,
पल पल बढ़ते कर्ज़े की तलवारी को।
मुझे लगा था
सड़कों से तो दशा हमारी,
जनता को दिख पाएगी,
क्यों आये हम सड़कों पे,
जनता तो जान पायेगी ।
मगर राजनीति करने वालों से,
फिर से हैं हम हार रहे,
कभी भाजपा, कभी कांग्रेस,
किसान ही नहीं हमें मान रहे।
हम मेहनककश, सरकारों से,
ज़्यादा न कुछ मांग रहे,
पुलिस की गोली बिलकुल नहीं,
पर सम्मानित जीवन मांग रहे।
पा ना सका गर अधिकारों को,
वापिस तो न जा पाऊंगा।
किसान आत्महत्या के असंख्य क्रम में,
वृद्धि ही कर पायूँगा।।
- स्वर्ण दीप बोगल
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