कविता - माना के इक ज़र्रा हूँ
माना के इक ज़र्रा हूँ,
अथाह सागर में गोते खाता,
पानी का एक कतरा हूँ,
फिर भी मेरे अस्तित्व को,
इतना कम भी मत आंकिये,
क्योंकि क़भी क़भी एक चींटी भी,
बड़े हाथी पर भारी पड़ती सकती है
माना कद में छोटा हूँ,
ताकत में कमज़ोर सही,
महत्वहीन ही लगता हूँ,
पर इसका मुझको अफ़सोस नहीं,
क्योंकि क़भी क़भी एक चींटी भी,
बड़े हाथी पर भारी पड़ती सकती है
क़तरे क़तरे बारिश से ही,
नदियां, तालाब, सागर बने,
ईंट ईंट के जुड़ने से,
भव्य भवन महान बने,
छोटा बड़ा या कुछ भी हो,
हर इक की यहां ज़रुरत है
तो खुशफ़हमी में जीने वालो,
इतना तो स्मरण रहे,
कि क़भी क़भी एक चींटी भी,
बड़े हाथी पर भारी पड़ती सकती है
- स्वर्ण दीप बोगल
माना के इक ज़र्रा हूँ,
अथाह सागर में गोते खाता,
पानी का एक कतरा हूँ,
फिर भी मेरे अस्तित्व को,
इतना कम भी मत आंकिये,
क्योंकि क़भी क़भी एक चींटी भी,
बड़े हाथी पर भारी पड़ती सकती है
माना कद में छोटा हूँ,
ताकत में कमज़ोर सही,
महत्वहीन ही लगता हूँ,
पर इसका मुझको अफ़सोस नहीं,
क्योंकि क़भी क़भी एक चींटी भी,
बड़े हाथी पर भारी पड़ती सकती है
क़तरे क़तरे बारिश से ही,
नदियां, तालाब, सागर बने,
ईंट ईंट के जुड़ने से,
भव्य भवन महान बने,
छोटा बड़ा या कुछ भी हो,
हर इक की यहां ज़रुरत है
तो खुशफ़हमी में जीने वालो,
इतना तो स्मरण रहे,
कि क़भी क़भी एक चींटी भी,
बड़े हाथी पर भारी पड़ती सकती है
- स्वर्ण दीप बोगल
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