Saturday 3 June 2017

कविता - ये इन्साफ तो नहीं

कविता 

ये इन्साफ तो नहीं 

माना गरीब के घर होना पैदा
किस्मत ही थी मेरी
तुम महंगे स्कूल और मैं सरकारी स्कूल 
फिर भी माना पढ़ाई न कर पाना 
लापरवाही ही थी मेरी
माना वातानुकूलित दफ्तर तुम्हारे  
और बदन झुलसाने वाली गर्मी में 
खेतों में काम करना आदत है मेरी
माना दिमागी कसरत काम तुम्हारा 
और हाड तोड़ मेहनत तकदीर है मेरी

मगर फिर भी 
विलासता में डूबे तुमऔर 
भूख से बिलखते मुझ अन्नदाता के बच्चे 
ये इन्साफ तो नहीं 
सुख सुविधाओं से भरपूर तुम और 
क़र्ज़ में डूबा फांसी का फंदा तलाशता मैं 
ये इन्साफ तो नहीं 
ड्राइंग रूम में टीवी चैनल मरोड़ते तुम 
और अपने हकों के लिए 
सड़कों पर पुलिस के डंडे खाता मैं 
ये इन्साफ तो नहीं 

- स्वर्ण दीप बोगल 

4 comments:

  1. Yeh Imsaaf to Nii poem Is really very osm sir��

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  2. Kya bat Kya bat really nice poem

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  3. This comment has been removed by a blog administrator.

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