Thursday 31 August 2017

कवित - मैं_पेड़

#मैं_पेड़

फल देता हूँ,फूल भी देता,
गृह निर्माण को लकड़ी हूँ देता,
प्राणदायक वायु भी देता।

तपती गर्मी की दोपहरी में,
अपनी छाओं से ठंडक देता,
बाढ़ों में बहती मिट्टी को
जड़ों से अपनी मैं जकड़े रखता।

ज़िंदा हुँ या कटा हुआ मैं,
मेरी काया का हर इक हिस्सा,
तना, जड़ें या हर पत्ता,
इंसानों के काम ही आता।

मानवता का सच्चा सेवक
क्या-क्या न मैं कष्ट उठाता
अपने भविष्य के लिए ही 
अंधाधुंध हमें न काटो,
मैं पेड़ ये अर्ज़ सुनाता।।

#स्वर्ण_दीप_बोगल

Tuesday 29 August 2017

तालाब_सी_स्थिरता

#तालाब_सी_स्थिरता

तालाब के ठहरे पानी सी,
ताज के ऊँचे खड़े-खड़े,
सदियों से पड़े मीनारों सी,
डल के चार-चिनारों सी,
स्थिरता चाहूं मैं जीवन में,
न चाहूँ भागा-दौड़ी सी

स्थिरता की चाह भी कुछ हद तक,
जीवन में लगे ज़रूरी सी,
पर तालाबों के स्थिर पानी सी,
जीवन में दुर्गंध न हो।
और बरसातों के पानी सा फिर,
पुनः ऊर्जा का संचार भी हो।

#स्वर्ण_दीप_बोगल

Monday 28 August 2017

कविता - सत्यमेव जयते

सत्यमेव जयते

ये कैसा चला है दौर
ये कैसी है हवा चली 
जहां सत्यमेव जयते को 
माना जाता था संस्कार कभी,
वहीं सत्य साबित करने में मुश्किल पड़ी

जो सत्य की गई थी लौ जगाई
वो लौ तो आज ओझल हो चली
क्योंकि सत्य के रक्षकोंं के लिए
राह में खड़ी हैं मूसीबतें बड़ी,
जान की बाज़ी भी उनको कभी लगानी पड़ी।

सत्य और न्याय की डगर
जो आज लगती है आज मुश्किल बड़ी
कभी आसान तो पहले भी न थी
मगर सत्य के सिद्धान्त पे चलने वालों के
साहस में भी कभी कमी न थी

तो गर जारी रखनी है हमें
सत्य व न्याय की लंबी जंग,
दृढ़ संकल्प से बिना परवाह किये,
राह में आने वाली परेशानियों के,
सदा रहना होगा सत्य के अंग-संग।

- स्वर्ण दीप बोगल

Saturday 26 August 2017

I WANT TO BE THE SECOND TYPE

I WANT TO BE THE SECOND TYPE

There are two #type of people,
who pretend they are helping others,
and 2nd who actually help the needy,
I want to be the second one

There are two #type of people,
who show they are not corrupt,
and 2nd who actually are not corrupt,
I want to be the second one

There are two #type of people,
who give moral lectures to others,
and 2nd who apply lectures on themselves,
I want to be the second one

- Swarn Deep Bogal

कविता - मिट्टी_के_कर्ज़

#मिट्टी_के_कर्ज़

अल्हड़ बचपन में जो खेले,
वो खेल भी खेले #मिट्टी में,
खेतों में जो-जो पैदा हुआ,
वो दाना-दाना भी मिट्टी से,
मन्दिर-मस्जिद या गुरुद्वारे को,
जिसने सदा है महकाया,
हर पुष्प उगा इस मिट्टी में,
ये वादियां, पर्वत और नदियां,
हर इक शह भी है मिट्टी से,
क्या हम कभी चुका पाएंगे?
जो कर्ज़ हैं हम पर मिट्टी के,

घरों से निकलते जो बारम्बार,
वो कचरों के ढेर भी मिट्टी में,
फैक्ट्रियों से निकले जो रोज़ाना
गन्दगी की हर इक धारा भी मिट्टी में,
फसलों में डाले हर कीटनाशक से
जो ज़हर मिला वो मिट्टी में,
देश की रक्षा व प्रगति के नाम पर,
परमाणु व गैर परमाणु,
हर अस्त्र-शस्त्र का परीक्षण है मिट्टी में,
क्या हम  भी दर्द उठा पाएंगे
जो झेले अब तक मिट्टी ने,

-स्वर्ण दीप बोगल

Friday 25 August 2017

कविता - अंधभक्ति की आग

अंधभक्ति की आग

ये कैसी अंध भक्ति है
ये कैसा कर रहे शोर हैं
कानून को लेकर हाथ में,
चीखो-पुकार का बनाया माहौल है।

अपने गुरु के नक्शे-कदम पे 
ये तो अच्छी तरह चल रहै हैं
कानून की न कर जो परवाह
बनकर गुंडे आगज़नी कर रहे हैं।

शिष्यों से सभ्यता की न करें भूल,
जब गुरु को न थी कभी किसी जान की  परवाह
औरतों की आबरू से जो खेलता रहा 
सत्ता के गलियारों व ताकत के नशे होकर चूर।

-स्वर्ण दीप बोगल

Wednesday 23 August 2017

kavita - कविताओं के लाभ

कविताओं के लाभ 

मेरे किसी प्रियजन ने एक दिन
बड़ी आत्मीयता दर्शाते हुए पूछा मुझसे,
ये जो आये दिन कविताएं लिखा करते हो
इससे तुम्हें क्या कुछ मिलता है?
तो मैंने बड़े प्रेमभाव से उत्तर दिया कि
हाँ समाजिक विषयों पर कविता लिखने से 
मेरे दिल को बहुत शांति व सुकून मिलता है।

मेरे उत्तर से असंतुष्ट मेरे प्रियजन फिर बोले,
वो सब तो ठीक है चलो मान लेते हैं,
मगर इन कविताओं पे दिये गए समय के बदले 
क्या धन तुम्हे कुछ मिल पाता है?
मैंने कहा कि धन के लिए और बहुत कुछ है, 
मगर रोज़मर्रा की ज़िंदगी का दबाब
मेरे मन मस्तिष्क से तो कुछ कम हो पाता है।

मैं मानता हूँ कि सोच मेरे प्रियजन की 
मेरे प्रति इस दौर में बुरी तो नहीं है, 
मगर सबकुछ आज भी पैसा तो नहीं है।
क्योंकि लूट-खसूट व लालच के इस दौर में
आंशिक रूप में ही सही, मेरी कविताएं अगर, 
प्रभावित कर पाऐं कुछ लोगों को ही सही,
तो इसमे किसी का बुरा तो नहीं है।

-स्वर्ण दीप बोगल

Monday 21 August 2017

कविता - कटती चोटियों की दास्तां

कटती चोटियों की दास्तां

उत्तर भारत की महिलाओं में, 
आजकल मचा हुआ कोहराम है,
जाने कौन प्रेत है जो घूम रहा है
गाँव-गाँव और शहर-शहर,
जिसने चोटियां काट-काट कर औरतों की
कर रखी नींद और चैन हराम है।

ये प्रेत है, चोर है या है मसखरा कोई,
हर कोई इसके बारे में अनजान हैै।
करता वो अगर कोई चोरी-डकैती 
तो भी मानते हैं कुछ बात होती,
ये चोटियां काट कर औरतों की
जाने कैसी बनाना चाहता अपनी पहचान हैं।

इस फर्जी भूत ने फैलाया कैसा भ्रमजाल है?
कि महंगाई में जहां टमाटर ने ली सबकी जान है,
वहां अंधविश्वास की मारी जनता 
नींबू, मिर्ची, प्याज़ व जाने क्या-क्या 
टांग-टांग कर अपने दरवाजों पर,
उस अनदेखे प्रेत को भगाने का कर रही प्रयास है।

मगर मेरे दिल में उठ रहा एक सवाल है
कि जिस देश में गरीबी, भुखमरी, 
बेरोजगारी व न जाने कितनी समस्याएं 
विकास की राह में रोड़े की तरह खड़ी हैं,
वहाँ किसी के बालों का कट जाना
क्या सचमुच मुसीबत इतनी बड़ी है?

हमारे देश के न्यूज़ चैनलों का भी 
देश में अंधविश्वास फैलाने में
एक बार फिर से पूरा योगदान है।
जिन्होंने करीब डेढ़ दशक पुराने 
मंकी मैन की तरह, चोटी कटवा भूत को भी
बनाया दहशत का सामान है।

- स्वर्ण दीप बोगल

Sunday 20 August 2017

कविता -गतिमान जीवन

गतिमान जीवन

माना कि रूसवाईयां भी 
मिलती हैं जीवन में कभी,
ये माना कि हर दांव ज़िन्दगी का
पड़ जाता है उल्टा कभी,
ये भी माना कि मुकम्मल जहाँ 
सभी को है मिलता नहीं,
मगर जीवन तो गतिमान है
कहीं ठहर जाना कहां इसका काम है।

माना सदा हर किसी के लिए
परिस्थितियां अनुकूल नहीं होती,
हताश होकर निष्क्रिय हो जाने से
ओझल होने लगती है आशा की ज्योति,
इसीलिए प्रतिकूल परिस्थितियों में भी
कर्म पथ पर रहना अडिग भूल नहीं होती,
क्योंकि जीवन तो गतिमान है,
कहीं ठहर जाना कहां इसका काम है।

सत्य, निष्ठा व न्यायसंगत पथ पर
बिना रुके जब हम चलते ही जायेंगे,
उम्मीद है कि कभी तो मंज़िल पाएंगे।
आँखों से ओझल अपने कर्म पथ पर,
मन में बिना किसी लोभ, मोह व स्वार्थ के,
आस का दीपक कर प्रज्वलित बढ़ते ही जायेंगे
क्योंकि जीवन तो गतिमान है,
कहीं ठहर जाना कहां इसका काम है।।

-स्वर्ण दीप बोगल

Wednesday 16 August 2017

कविता - मेरा सफर

कविता - मेरा सफर

पोते के जन्म के सपने संजोती,
दादी माँ का तब मुँह था उतरा,
मुझ नवजात को जब,
नर्स ने थमाया था हाथ  में।

यूँ तो लाडली हूँ माँ-बाबा की,
हमेशा से फिर भी,
भैया के जन्म के जैसा,
मेरे जन्म पर उत्सव तो न था।

वैसे तो पापा की परी थी मैं,
मगर फिर भी, बचपन में ही,
भैया के खिलौने बल्ला, बन्दूक और
मेरे गुड़िया व किचन सैट ही क्यों थे?

मानती हूँ पढाई में समान अवसर मिले
हम दोनों को फिर भी,
भैया को खाली समय में खेलने की छूट
पर मुझे घरेलु काम क्यों करने पड़ते थे?

वैसे तो पूरे घर-परिवार की
रौनक ही थी मैं मगर फिर भी,
बात-बात में पराया धन बोलकर
क्यों संबोधित की जाती थी?

जग की रीत सही ये माना मैने,
पापा, मगर फिर भी,
क्यों अपने जिगर के टुकड़े को,
किसी वस्तु की तरह दान कर दिया।

पति की तरह काम से थक-टूट कर
आती थी मैं भी, मगर फिर भी,
घर के काम में हाथ बंटाना उनका,
जोरू का उनको गुलाम कर गया।

प्रातः सबसे पहले दिन होता मेरा,
घर-दफ्तर व बच्चों-बुजुर्गों की देखभाल भी है
बस फ़र्ज़ मेरे मगर फिर भी,
चक्की की तरह पिस अंत में सोना क्या बस फ़र्ज़ मेरा?

अपने अस्तित्व की भी न कर परवाह,
जब अपना सर्ववस्व झोंक दिया मैन,
न जाने क्यों फिर भी,
बेगाने घर की ही कहलाई गई?

कभी पिता, कभी भाई तो कभी पति
के सरंक्षण में थी, इसीलिए शायद,
अपने लिए खुद कुछ सोच भी न पाई कभी,
आज़ाद मुल्क में मैं ही क्यों गुलाम रह गयी???

- स्वर्ण दीप बोगल 

Monday 14 August 2017

स्वतंत्रता दिवस


POEM - ARE WE FREE

POEM - ARE WE FREE???

Even when if we were set free,

by Britishers 70 years ago,
to live and to speak,
to think and to express freely,
Are we free for any such emotion????

Even if we got freed from their
clutches of centuries old subjugation,
slave mentality still hovers us,
we still follow and endorse the culture, 
language & literature of others than our own

Even after getting up from deep slumber,
we are still involved in hatred,
Blaming each other without any reason,
So big question is still there
When we would be free ????

- Swarn Deep Bogal

Sunday 13 August 2017

कविता - सच्ची देशभक्ति

कविता - सच्ची देशभक्ति

सिनेमा घरों में होकर सावधान
राष्ट्रगान का हो रहा सम्मान,
सोशल नेटवर्किंग साइट्स पर भी
लगाकर तिरंगे प्रोफ़ाइल पर,
देते देशभक्ति की पहचान,

जातिवाद, भ्रष्टाचार आदि कुरीतियों को,
देश से मिटाने का संकल्प लेकर भी,
दिया जाता देशभक्ति का प्रमाण,
या वंदे मातरम बोलकर ही,
देशभक्त कहलाना है सबसे आसान।

मगर सिर्फ दिखावे भर से,
क्या हो पायेगा अपना देश महान?
जब चढ़ा है इनकी आंखों पर,
झूठ, भ्रष्टाचार व जातिवाद का,
पर्दा इक अनजान।

राष्ट्रप्रेम एक मधुर अहसास है 
राष्ट्र के प्रति, राष्ट्रवासियों के प्रति, 
व राष्ट्र के कण-कण के प्रति
ये एक खूबसूरत जज़्बा है
राष्ट्र के लिए जान तक कुरबान करने का

तो गर देना है अपनी देशभक्ति का प्रमाण,
अपने ही देशवासियों से,
करना होगा प्रेम, मिटाकर नफरतों के निशान,
मेहनत, ईमानदारी से काम करें
ताकि राष्ट्र निर्माण में हो सके अपना योगदान।।

- स्वर्ण दीप बोगल



poem - Settled Life

Settled Life

After doing hardwork
for my matric exam,
as instructed by dad,
I thought my life would be set

After my toiling effort
again in senior secondary
as instructed by dad,
I thought my life would be set

Again after another stint
of cracking engineering seat,
as instructed by many,
I thought my life would be set

Even after four years
of rigorous hardwork,
when passed engineering,
I thought my life would be set

From the large army
of unemployed engineers,
when I cracked job in an MNC,
I thought my life would be set

After trying to do my work
with commitment & dedication,
as instructed by Manager,
I thought my life would be set

After the lifelong journey,
of confronting  hardships
at each & every milestone,
I understood, is itself Life

- Swarn Deep Bogal

Saturday 12 August 2017

MOVIEREVIEW – #TOILET - EK PREM KATHA – (2017)

#MOVIEREVIEW – #TOILET - EK PREM KATHA – (2017)


Today I am here again with the review of one of the movie released this Friday i.e. TOILET – EK PREM KATHA (2017). Directed by Shree Narayan Singh and starring Akshay Kumar, Bhumi Padnekar, Anupam Kher, Devyendu Sharma & Sudhir Pandey in lead roles.

PLOT:
As its name & promos suggest, the present movie is based on the concept of Govt. sponsored sanitation drive, Swachh Bharat Abhiyan, for the eradication of open defecation, prevalent in rural India due to conservative mindsets of villagers in the name of culture. The protagonist of the movie, Keshav (Akshay Kumar), is a 12th fail 36 years old bachelor, who is trapped in the traditional rituals by his conservative father, Pandit Ji (Sudhir Pandey). Jaya (Bhumi Padnekar), is topper in UP board, who is full of life and open minded girl, but eventually falls for Keshav and they somehow manage to marry each other. Real problem started when she was aware that there is no toilet facility in Keshav’s house and she has to go out in open for defectation with so called ‘LOTA PARTY’ at early in the morning, which was not never acceptable to her.

ANALYSIS:
The movie has a unique concept and a social message for a problem prevalent in our rural areas. The first half of the movie is full of fun, hilarious moments in addition to love story whereas second is drama and looked like in a hurry in the end. There are certain loopholes in the screenplay and story jumps from one topic to another.

The music of the movie is not the best and most of the songs in the movie seem forcefully inserted and doesn’t make an impact. Overall the movie is just an advertisement campaign for PM Modi’s Swachh Bharat Abhiyan and all praise for the Union Govt. running under the PM Modi and Toilet Scams by the previous governments.

What’s Good:
A social message with humour with good performances by Akshay Kumar, Bhumi Padnekar & Devendyu Sharma.

Loop holes in the movie:
Slow pace of the movie in the second half & unnecessary songs.

Star Peformance:-
Akshay Kumar has played the role of Keshav honestly with proper UP accent. But he is looked older than 36 in the movie. Bhumi has also played the role of a UP girl with perfection in all departments be it accent, dialogue delivery, or expressions.

Devyendu Sharma is full of energy throughout the film and his fun making chemistry with Akshay Kumar is spot on. Anupam Kher, as always is good and Sudhir Pandey has played the role of conservative Pandit ji with full dedication.

Final words:
Social message with a blend of comedy with equally powerful performances by lead roles. A good weekend watch inspite of weak second half.


My ratings for this movie is 2.5 out of 5 stars.

So keep following the page, good day till the next review


Bogal | S R I J A N

Friday 11 August 2017

कविता - अधूरा ख्वाब

कविता - अधूरा ख्वाब

इक रोज़ सुबह जब आंख खुली
तो फ़िज़ा लगी कुछ बदली सी
अम्बर में उगता सूरज भी 
लगा मुझे तब प्यारा सा
जब शिद्रों से झांकती लाली ने
बिस्तर पे मुझको पुकारा था
पंशियों की मधुर आवाज़ें थी
और हाथ में चाय का प्याला था
आँगन में बैठे जब मैंने
 उस दिन का अखबार निकाला था

जो पढ़ी खबर एक खास थी मैंने
हो रहा था मुझको यकीं नहीँ,
हैरान था या मैं खुश बहुत,
इसकी भी मुझको खबर नहीँ
कि हिन्द-पाक के आपसीे रिश्ते 
पहले से अब तल्ख न होंगे
मुद्रा भी दोनों मुल्कों की 
भविष्य में अब सांझी होगी
बस पहचान पत्र दिखाकर ही 
सरहद पार होगी आवा जाई। 

चाय व अखबार बाहर ही छोड़ 
अंदर को सहसा ही मैं दौड़ा, 
और न्यूज़ चैनल पर इस घटनाक्रम का
मैंने सुना सारा ब्यौरा, 
कि द्विपक्षीय वार्ता में कल ही
सरकारों ने है समझ दिखाई,
दशकों की नफ़रतें पीछे छोड़
यूरोपियन यूनियन की तर्ज़ पर,
बिना वीज़ा के दोनों देशों में घूमने
व सांझी मुद्रा की सौगात,
अपने नागरिकों को दिलाई। 

खबर सुनकर जनता का
दोनों ओर खुशी का माहौल है,
सरहद पार जाकर घूम आने वालों का,
जैसा दिखा रहे हैं टी वी वाले,
दोनों तरफ की जनता का
लम्बी-लम्बी कतारों में पड़ा शोर है,
खबरें ये सब मैंने अपने परिवार को जब सुनाई
उनके चेहरे पर भी खुशी थी बहुत आई
और थोड़ी देर में ही उन्होंने भी
सरहद पार जाने की योजना बनाई

मना करने के बावजूद भी जब बच्चों ने 
थी ज़िद दिखाई, तो मैंने भी कुछ देर बाद
गाड़ी घर से सरहद की तरफ बढ़ाई
सरहद की तरफ जब मैं जा रहा था
पिछली गाड़ी वाला बार-बार हॉर्न बजा रहा था
खीज़ से जब मैने गाड़ी को रोका 
अलार्म के छोर से मेरा ख्वाब भी टूटा 
ख्वाब को अपने फिर भी सोचे जा रहा था 
शान्ति, एकता व् भाईचारे  का प्रतीक 
मेरा ख्वाब, अब अधूरा ही लगता नज़र आ रहा था 

- स्वर्ण दीप बोगल 

Tuesday 8 August 2017

Poem - Study of Life

Study of Life

Slowly slowly, day by day,
with every passing day,
As my hairs are turning grey,
I am graduating the degree of Life,
with every moment running away

Like a studious learner all the way,
learning from every teacher,
Be it junior or my senior everyday,
this is the way how,
I am graduating the degree of Life,
with every moment running away

- Swarn Deep Bogal

Monday 7 August 2017

#कविता - #रक्षाबंधन

#कविता - #रक्षाबंधन

रक्षा सूत्र तो जानू मैं ना
इस डोरी में है प्रेम तुम्हारा
बचपन की नटखट यादों को
फिर ताज़ा करने का
शायद ये भी एक सहारा
भाई-बहन के प्रेम को समर्पित
रक्षाबंधन का त्यौहार ये प्यारा

रक्षा की क्यों बात तुम्हारी
जब आत्मविश्वास से परिपूर्ण
हो आत्मनिर्भर तुम
न हो कोई अबला नारी
अकेले सड़कों पर चलती
हर बहन को गर सम्मान मिल पाए
तो सफल रक्षाबंधन की अपनी तैयारी

रक्षा क्या मैं करूँ तुम्हारी
न मैं भी कोई शहंशाह भारी
पर इक प्रण रक्षाबंधन पर
लेता हूँ मैं खातिर तुम्हारी
महिला समान अधिकार की 
लम्बी जंग में रहेगी 
पूरी भागीदारी हमारी

#स्वर्ण #दीप #बोगल

Saturday 5 August 2017

कविता - मेरा मित्र

कविता - मेरा मित्र

शिष्टाचार की न जिसे कभी परवाह
न जिसे फिक्र किसी आवभगत की
जो हमेशा मेरे साथ रहा, फिर भी
न उसको उम्मीद थी किसी ज़िक्र की

बस एक ही आवाज़ पे जो
दिन-रात भी सोचे बिना
बस दौड़ा ही चला आये
मैं बात कर रहा हूँ अपने मित्र की

मैं उसके दिल की समझूं
वो मेरे दिल की जाने
कड़वी-मीठी यादों से बना
यही आधार हमारी मित्रता का

अपनी-अपनी पारिवारिक
जटिलताओं से जूझने के बावजूद
जो सदा चट्टान की तरह स्थिर रही
मैं बात कर रहा हूँ उस मित्रता की

-स्वर्ण दीप बोगल

Friday 4 August 2017

कविता - सुंदरता की प्रशंसा ?

कविता - सुंदरता की प्रशंसा ?


मोटरसाइकिल चलाते हुए
पीछे मुड़-मुड़कर
राह में चलती लड़की को घूरते
एक मित्र को बोला मैंने
कि ध्यान कहाँ है भाई तुम्हारा
टकरा जाए न कोई बेचारा
तो वह बोला
कि सुंदरता के प्रेमी हैं
चीज़ सुंदर अगर दिख जाए तो
तो उसे निहारने में क्या जाता हमारा

बोल तो उसको कुछ नहीं पाया
उस समय क्योंकि
कुछ जल्दी दफ्तर पहुंचने की थी
और कुछ द्वंद आंतरिक भी था
मगर फिर भी 
घटना वो मुझको सताती रही
मानसिकता हम पुरुषों की
स्त्रियों को इंसान न जानकर
बस एक चीज़ मानने की 
अंदर ही मुझको जलाती रही

ये घटना जो बस इक किस्सा है
हमारी बहन बेटियों की 
जीवनचर्या का अटूट हिस्सा है
अपनी बेटियों की उम्र की
बच्चियों को ताड़ने वाले
क्यों भूल जाते हैं 
कि, बहन बेटियां उनकी भी
उन जैसों की ही शिकार हैं
फिर जब बात उनपर आती है
तो फिर क्यों मचाते हाहाकार हैं

- स्वर्ण दीप बोगल

Wednesday 2 August 2017

कविता - मेरे अहसासों के मोती

कविता - मेरे अहसासों के मोती

हम तो बस प्रयास कर रहे हैं
कि शब्दों की माला में
पिरो पाएं अपने अहसासों के मोती
जाने उन्हें ऐसा क्यों लगता है
कि हम कवि हो गए हैं

हम तो प्रयासरत थे कि
जीवन की खट्टी-मीठी अनुभूतियों को 
उतार पाएं कागज़ के टुकड़े पे
जाने उन्हें ऐसा क्यों लगता है
कि हम कवि हो गए हैं

हम तो चाहते थे कि
कुछ सामाजिक कुरीतियों को
उजागर कर पाएं किसी तरीके से
जाने उन्हें ऐसा क्यों लगता है
कि हम कवि हो गए हैं

हम तो कर रहे हैं बात भाईचारे की
ताकि इंसानियत ज़िंदा रह सके
कुछ तुझमे भी, कुछ मुझमे भी
जाने उन्हें ऐसा क्यों लगता है
कि हम कवि हो गए हैं

- स्वर्ण दीप बोगल