Monday 21 August 2017

कविता - कटती चोटियों की दास्तां

कटती चोटियों की दास्तां

उत्तर भारत की महिलाओं में, 
आजकल मचा हुआ कोहराम है,
जाने कौन प्रेत है जो घूम रहा है
गाँव-गाँव और शहर-शहर,
जिसने चोटियां काट-काट कर औरतों की
कर रखी नींद और चैन हराम है।

ये प्रेत है, चोर है या है मसखरा कोई,
हर कोई इसके बारे में अनजान हैै।
करता वो अगर कोई चोरी-डकैती 
तो भी मानते हैं कुछ बात होती,
ये चोटियां काट कर औरतों की
जाने कैसी बनाना चाहता अपनी पहचान हैं।

इस फर्जी भूत ने फैलाया कैसा भ्रमजाल है?
कि महंगाई में जहां टमाटर ने ली सबकी जान है,
वहां अंधविश्वास की मारी जनता 
नींबू, मिर्ची, प्याज़ व जाने क्या-क्या 
टांग-टांग कर अपने दरवाजों पर,
उस अनदेखे प्रेत को भगाने का कर रही प्रयास है।

मगर मेरे दिल में उठ रहा एक सवाल है
कि जिस देश में गरीबी, भुखमरी, 
बेरोजगारी व न जाने कितनी समस्याएं 
विकास की राह में रोड़े की तरह खड़ी हैं,
वहाँ किसी के बालों का कट जाना
क्या सचमुच मुसीबत इतनी बड़ी है?

हमारे देश के न्यूज़ चैनलों का भी 
देश में अंधविश्वास फैलाने में
एक बार फिर से पूरा योगदान है।
जिन्होंने करीब डेढ़ दशक पुराने 
मंकी मैन की तरह, चोटी कटवा भूत को भी
बनाया दहशत का सामान है।

- स्वर्ण दीप बोगल

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