कविता - मेरा सफर
पोते के जन्म के सपने संजोती,
दादी माँ का तब मुँह था उतरा,
मुझ नवजात को जब,
नर्स ने थमाया था हाथ में।
यूँ तो लाडली हूँ माँ-बाबा की,
हमेशा से फिर भी,
भैया के जन्म के जैसा,
मेरे जन्म पर उत्सव तो न था।
वैसे तो पापा की परी थी मैं,
मगर फिर भी, बचपन में ही,
भैया के खिलौने बल्ला, बन्दूक और
मेरे गुड़िया व किचन सैट ही क्यों थे?
मानती हूँ पढाई में समान अवसर मिले
हम दोनों को फिर भी,
भैया को खाली समय में खेलने की छूट
पर मुझे घरेलु काम क्यों करने पड़ते थे?
वैसे तो पूरे घर-परिवार की
रौनक ही थी मैं मगर फिर भी,
बात-बात में पराया धन बोलकर
क्यों संबोधित की जाती थी?
जग की रीत सही ये माना मैने,
पापा, मगर फिर भी,
क्यों अपने जिगर के टुकड़े को,
किसी वस्तु की तरह दान कर दिया।
पति की तरह काम से थक-टूट कर
आती थी मैं भी, मगर फिर भी,
घर के काम में हाथ बंटाना उनका,
जोरू का उनको गुलाम कर गया।
प्रातः सबसे पहले दिन होता मेरा,
घर-दफ्तर व बच्चों-बुजुर्गों की देखभाल भी है
बस फ़र्ज़ मेरे मगर फिर भी,
चक्की की तरह पिस अंत में सोना क्या बस फ़र्ज़ मेरा?
अपने अस्तित्व की भी न कर परवाह,
जब अपना सर्ववस्व झोंक दिया मैन,
न जाने क्यों फिर भी,
बेगाने घर की ही कहलाई गई?
कभी पिता, कभी भाई तो कभी पति
के सरंक्षण में थी, इसीलिए शायद,
अपने लिए खुद कुछ सोच भी न पाई कभी,
आज़ाद मुल्क में मैं ही क्यों गुलाम रह गयी???
- स्वर्ण दीप बोगल
पोते के जन्म के सपने संजोती,
दादी माँ का तब मुँह था उतरा,
मुझ नवजात को जब,
नर्स ने थमाया था हाथ में।
यूँ तो लाडली हूँ माँ-बाबा की,
हमेशा से फिर भी,
भैया के जन्म के जैसा,
मेरे जन्म पर उत्सव तो न था।
वैसे तो पापा की परी थी मैं,
मगर फिर भी, बचपन में ही,
भैया के खिलौने बल्ला, बन्दूक और
मेरे गुड़िया व किचन सैट ही क्यों थे?
मानती हूँ पढाई में समान अवसर मिले
हम दोनों को फिर भी,
भैया को खाली समय में खेलने की छूट
पर मुझे घरेलु काम क्यों करने पड़ते थे?
वैसे तो पूरे घर-परिवार की
रौनक ही थी मैं मगर फिर भी,
बात-बात में पराया धन बोलकर
क्यों संबोधित की जाती थी?
जग की रीत सही ये माना मैने,
पापा, मगर फिर भी,
क्यों अपने जिगर के टुकड़े को,
किसी वस्तु की तरह दान कर दिया।
पति की तरह काम से थक-टूट कर
आती थी मैं भी, मगर फिर भी,
घर के काम में हाथ बंटाना उनका,
जोरू का उनको गुलाम कर गया।
प्रातः सबसे पहले दिन होता मेरा,
घर-दफ्तर व बच्चों-बुजुर्गों की देखभाल भी है
बस फ़र्ज़ मेरे मगर फिर भी,
चक्की की तरह पिस अंत में सोना क्या बस फ़र्ज़ मेरा?
अपने अस्तित्व की भी न कर परवाह,
जब अपना सर्ववस्व झोंक दिया मैन,
न जाने क्यों फिर भी,
बेगाने घर की ही कहलाई गई?
कभी पिता, कभी भाई तो कभी पति
के सरंक्षण में थी, इसीलिए शायद,
अपने लिए खुद कुछ सोच भी न पाई कभी,
आज़ाद मुल्क में मैं ही क्यों गुलाम रह गयी???
- स्वर्ण दीप बोगल
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