Saturday 26 August 2017

कविता - मिट्टी_के_कर्ज़

#मिट्टी_के_कर्ज़

अल्हड़ बचपन में जो खेले,
वो खेल भी खेले #मिट्टी में,
खेतों में जो-जो पैदा हुआ,
वो दाना-दाना भी मिट्टी से,
मन्दिर-मस्जिद या गुरुद्वारे को,
जिसने सदा है महकाया,
हर पुष्प उगा इस मिट्टी में,
ये वादियां, पर्वत और नदियां,
हर इक शह भी है मिट्टी से,
क्या हम कभी चुका पाएंगे?
जो कर्ज़ हैं हम पर मिट्टी के,

घरों से निकलते जो बारम्बार,
वो कचरों के ढेर भी मिट्टी में,
फैक्ट्रियों से निकले जो रोज़ाना
गन्दगी की हर इक धारा भी मिट्टी में,
फसलों में डाले हर कीटनाशक से
जो ज़हर मिला वो मिट्टी में,
देश की रक्षा व प्रगति के नाम पर,
परमाणु व गैर परमाणु,
हर अस्त्र-शस्त्र का परीक्षण है मिट्टी में,
क्या हम  भी दर्द उठा पाएंगे
जो झेले अब तक मिट्टी ने,

-स्वर्ण दीप बोगल

No comments:

Post a Comment