कविता - अधूरा ख्वाब
इक रोज़ सुबह जब आंख खुली
इक रोज़ सुबह जब आंख खुली
तो फ़िज़ा लगी कुछ बदली सी
अम्बर में उगता सूरज भी
लगा मुझे तब प्यारा सा
जब शिद्रों से झांकती लाली ने
बिस्तर पे मुझको पुकारा था
पंशियों की मधुर आवाज़ें थी
और हाथ में चाय का प्याला था
आँगन में बैठे जब मैंने
उस दिन का अखबार निकाला था
जो पढ़ी खबर एक खास थी मैंने
हो रहा था मुझको यकीं नहीँ,
हैरान था या मैं खुश बहुत,
इसकी भी मुझको खबर नहीँ
कि हिन्द-पाक के आपसीे रिश्ते
पहले से अब तल्ख न होंगे
मुद्रा भी दोनों मुल्कों की
भविष्य में अब सांझी होगी
बस पहचान पत्र दिखाकर ही
सरहद पार होगी आवा जाई।
चाय व अखबार बाहर ही छोड़
अंदर को सहसा ही मैं दौड़ा,
और न्यूज़ चैनल पर इस घटनाक्रम का
मैंने सुना सारा ब्यौरा,
कि द्विपक्षीय वार्ता में कल ही
सरकारों ने है समझ दिखाई,
दशकों की नफ़रतें पीछे छोड़
यूरोपियन यूनियन की तर्ज़ पर,
बिना वीज़ा के दोनों देशों में घूमने
व सांझी मुद्रा की सौगात,
अपने नागरिकों को दिलाई।
खबर सुनकर जनता का
दोनों ओर खुशी का माहौल है,
सरहद पार जाकर घूम आने वालों का,
जैसा दिखा रहे हैं टी वी वाले,
दोनों तरफ की जनता का
लम्बी-लम्बी कतारों में पड़ा शोर है,
खबरें ये सब मैंने अपने परिवार को जब सुनाई
उनके चेहरे पर भी खुशी थी बहुत आई
और थोड़ी देर में ही उन्होंने भी
सरहद पार जाने की योजना बनाई
मना करने के बावजूद भी जब बच्चों ने
थी ज़िद दिखाई, तो मैंने भी कुछ देर बाद
गाड़ी घर से सरहद की तरफ बढ़ाई
सरहद की तरफ जब मैं जा रहा था
पिछली गाड़ी वाला बार-बार हॉर्न बजा रहा था
खीज़ से जब मैने गाड़ी को रोका
अलार्म के छोर से मेरा ख्वाब भी टूटा
ख्वाब को अपने फिर भी सोचे जा रहा था
शान्ति, एकता व् भाईचारे का प्रतीक
मेरा ख्वाब, अब अधूरा ही लगता नज़र आ रहा था
- स्वर्ण दीप बोगल
ख्वाब को अपने फिर भी सोचे जा रहा था
शान्ति, एकता व् भाईचारे का प्रतीक
मेरा ख्वाब, अब अधूरा ही लगता नज़र आ रहा था
- स्वर्ण दीप बोगल
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