Saturday 30 December 2017

सपने देखने की हैसियत

सपने देखने की हैसियत

जानता हूँ कि सपने देखने की
व शौक पालने की हैसियत नहीं होती,
दो वक्त की रोटी के जुगाड़ में व्यस्त,
किसी गरीब मेहनतकश के पास,
चाहे अपनी किसी रुचि या शौक के बारे,
कितने ही निबंध लिखे हों बचपन में।
किसी मंज़िल को पाने के लड़कपन में,
कितने ही सपने देखे हों उसने।
फिर भी ज़िन्दगी की जद्दोजहद के बावजूद,
अगर सपने देखे ही न जाते, तो
दासप्रथा की बर्बरता व अमानवीय अत्याचार से, 
क्या कभी निकल पाते हम?
किसी सामन्त के शाही फरमान के बोझ से,
क्या कभी निकल पाते हम?
कारखानों में दिन-रात अपनी जान गवांते मज़दूर,
क्या कभी खूनी संघर्ष के उपरांत
काम के 8 घण्टे तय करवा पाते?
एक नागरिक के तौर पर जो अधिकार,
लोकतंत्र ने हमें प्रदान किये हैं,
वो सब क्या हमें मिल पाते?

- बोगल सृजन

Wednesday 27 December 2017

दिल की आवाज़

दिल की आवाज़

चहुँ ओर फैले बेतहाशा शोर में भी,
जब बड़ी एकाग्रता के साथ
मैं अपने दिल की सुन रहा हूँ,
तो कोई अंतर नहीं अगर कोई कहे,
कि मैं बस किस्से-कहानियाँ बुन रहा हूँ।

जब इंसानियत बिक रही है कौड़ियों के भाव,
जब रिश्तों से अधिक मोल पैसों का है,
जब हर रिश्ते की बुनियाद मतलब है, 
तो क्या बुरा है अपने ज़मीर की सुन कर,
मैं अगर किस्से-कहानियां ही बुन रहा हूँ।

माना धन संचित करने में ज़रा कच्चा हूँ,
झूठ, छल व फरेब समझने में खाता गच्चा हूँ,
फिर भी वंचितों के दुख, दर्द व पीड़ा समझ अगर मैं,
लिखने को प्रयासरत हूँ तो बुरा नहीं गर कोई ये कहे, 
कि मैं बस किस्से-कहानियां बुन रहा हूँ।

कुछ अनोखा तो नहीं कर रहा हूँ,
अपने सामाजिक कर्तव्य पूरे न कर पाकर,
साधारण जनमानस की रोज़मर्रा की दिक़्क़तों,
उनकी चुनौतियों व उनके अधिकारों की बात कहते,
अगर मैं किस्से-कहानियां बुन रहा हूँ।।

- बोगल सृजन 

Friday 22 December 2017

सत्य व आदर्शवाद की खोखली बातें

सत्य व आदर्शवाद की खोखली बातें

क्यों पढ़ाई जाती हैं अबोध बालकों को,
सत्य व आदर्शवाद की खोखली बातें,
जब सच का मुखौटा पहने झूठ द्वारा,
सच्चाई को सर्रेआम बीच चौराहे,
हर रोज़ नीलाम किया जाता है।

क्यों पढ़ाई जाती हैं अबोध बालकों को,
सत्य व आदर्शवाद की खोखली बातें,
जब सड़क से लेकर सत्ता के गलियारों तक,
जीवन के हर इक कारोबार में,
झूठ, फरेब व धोखा ही नज़र आता है।

क्यों पढ़ाई जाती हैं अबोध बालकों को,
सत्य व आदर्शवाद की खोखली बातें,
जब सत्यनिष्ठा से कर्म करने वालों को,
अपनी सत्यता व निष्ठा साबित करते,
पूरा-पूरा जीवन बीत जाता है।

क्यों पढ़ाई जाती हैं अबोध बालकों को,
सत्य व आदर्शवाद की खोखली बातें,
जब सत्यनिष्ठों का जीवन कष्ट भरा,
व झूठे फरेबियों का जीवन सदा
आरामदायक व आनन्दमय नज़र आता है।

अब तो ये सोचता हूँ की क्यों नहीं पढ़ाई जाती, 
अबोध बालकों को झूठ व फरेब की सच्चाई,
कि झूठ, फरेब व धोखाधड़ी की भी करें वो पढ़ाई,
क्योंकि जीवन के हर क्षेत्र में सफलता पाने को,
आखिर यही सब तो आज काम आता है।।

- बोगल सृजन

Friday 15 December 2017

क्या ख़ाक जी रहे हैं।

क्या ख़ाक जी रहे हैं।

जीवन की भाग-दौड़ के चक्कर में,
छोटे-छोटे खुशी के पलों को,
छोड़कर आने वाले कल के भरोसे,
जी रहे हैं जीवन अगर,
तो क्या हम ख़ाक जी रहे हैं।

इन छोटे-छोटे खुशियों के पलों को,
जीकर अपने जीवन की डायरी में,
सहेज कर न रख पाए अगर,
अपने बुढ़ापे में याद करने के लिये,
तो क्या हम ख़ाक जी रहे हैं।

माना व्यस्तता है जीवन में,
जिम्मेदारियों के बोझ से,
मगर अच्छे कल की उम्मीद में,
हम आज को इक सज़ा सा जियें,
तो क्या हम ख़ाक जी रहे हैं।

मैं ये तो नहीं कहता कि
भविष्य की योजनाएं बनाना गलत है,
मगर अनिश्चित कल के लिए,
अपना आज कुर्बान करके जियें अगर,
तो क्या हम ख़ाक जी रहे हैं।।

#बोगल सृजन

Sunday 10 December 2017

सफर जीवन का

सफर जीवन का

ये सफर ज़िन्दगी का,
माना मुश्किल तो है,
मगर चुनौतियों से भयभीत होकर,
सफर कोई भी बीच मझधार छोड़ना,
फिर भी बात बेहतर तो नहीं है।

ये भी मान लिया,
कि जीवन के सफर में सदा,
फूलों से सजी राहें तो न होंगी,
मगर हमसफ़र अच्छा हो अगर,
सफर कोई भी मुश्किल तो नहीं है।

कभी मंज़िल पाने को अथक प्रयास,
कभी उम्मीद टूट जाने पर लगे आघात,
नन्हीं सी खुशी पर जश्न कभी है,
ये उतार-चढ़ाव ही न हों अगर जीवन में,
तो भी इस सफर में कोई मज़ा नहीं है।

हाँ, ये भी माना कि 
समझौता करना पड़ता है कभी।
क्योंकि बुलन्दियाँ पाने के लिये,
कष्ट उठाना भी पड़ जाए जीवन में अगर,
तो शायद कोई बुरी बात नहीं है।।

Friday 8 December 2017

क्या हमने अपना फर्ज़ निभाया?

क्या हमने अपना फर्ज़ निभाया?

एक प्रश्न बड़ा ही गम्भीर सा,
सहसा ही मेरे मन में उमड़ आया,
कि सात दशकों की आज़ादी के उपरांत,
इस महान लोकतंत्र से हमने क्या पाया।
इस प्रश्न को जब मैंने बार-बार दोहराया,
हाशिये पर जी रही बहुसंख्यक आबादी व
भूख से बिलखते बच्चों की फौज का प्रश्न उठाया,
तो उत्तर हर तरफ से नदारद आया।।

जब मैंने इस प्रश्न को बार-बार दोहराया,
तो कहीं से जवाब ये भी आया कि 
हमने इस देश के महान लोकतंत्र से,
वोट करके प्रतिनिधि चुनने का अधिकार पाया।
पर जब इस उत्तर पर थोड़ा ध्यान लगाया,
तो पाया कि वर्षों से जिन्हें चुनते रहे वोट देकर,
कभी ज़ात के नामपर तो कभी धर्म के नामपर,
उन्होंने हमें सदा लड़ाया और खुद माल कमाया।।

हर बार सरकारों ने हमारा मज़ाक बनाया,
कभी हमारी गरीबी, कभी बेरोजगारी,
तो कभी भ्रष्टाचार को मुद्दा बनाकर,
सत्ता को हथियाने का बस रास्ता बनाया।
फिर पाँच वर्ष बाद कोई नया दल आया,
उसने भी हमें सुनहरे कल का ख्वाब दिखाया,
वोट दे हमने भी अपना फर्ज निभाया,
पर देश के हालात में अंतर कोई नज़र न आया।।

माना समय-समय की सरकारों ने 
किया जनता को गुमराह और फायदा उठाया।
मगर बस 5 वर्ष बाद वोट देकर ही,
इस लोकतंत्र के लिए हमारा फर्ज़ पूरा हो पाया?
अब प्रश्न है कि देश की एकता-अखंडता के लिए,
भ्रष्टाचार का जड़ से अंत करने के लिए,
जात-पात व ऊँच-नीच सी कुरीतियों के अंत के लिए,
हम सब ने कितना ही जिम्मा उठाया।।

अपने ही काम का ठीकरा दूसरे पर 
फोड़ने की आदत ने हमें इतना उलझाया 
कि हमने लोकतंत्र को बनाने व बचाये रखने की,
सब जिम्मेदारियों को बस राजनेताओं को थमाया।
माना कुरीतियाँ हावी हैं जनमानस पर, 
और भ्रष्टाचार रच-बस गया है हमारे समाज में,
मगर पा लेंगे मंज़िल स्वच्छ समाज की हम सब
मिलजुल कर संघर्ष करने का जो हमने बीड़ा उठाया।।

#बोगल सृजन

Saturday 2 December 2017

हौसले_को_नमन

हौसले_को_नमन

न समझो इन्हें पात्र दया के,

न अलग तरह के इंसान,
माना कि दिव्यांग हैं ये,
पर चाहें ये सबकी तरह,
समान अधिकार व सम्मान।

तो क्या है गर वंचित हैं,

काया के किसी अंश से,
फिर भी हार न मानकर, 
दृढ़ संकल्प व इच्छाशक्ति से,
सँघर्षरत रहें जीवनपर्यंत ये।

अधूरे होकर भी पूरे हैं,

मजबूत इरादों की सान पर तेज़ हुए जो,
हिम्मत व हौसले के हथियार से,
नमन करूँ मैं शत-शत इनको,
लड़ जीवन से जो कभी न हारते।।

#बोगल_सृजन

Wednesday 29 November 2017

सच्चाई का सच

सच्चाई का सच

सत्य, निष्ठा व कर्तव्य परायणता,
गुज़रे ज़माने की ही पड़ती जान है,
व्यक्तिगत स्वार्थ को देकर तिलांजलि,
कर्म को धर्म मान निष्ठा से जो लगे रहे,
ऐसे लोगों की अब कहाँ पहचान है।

आडम्बरों से ऐसा आकर्षक हुआ असत्य,
कि सत्य को भी चाहिए अब प्रमाण हैं।
भ्रष्टाचार, धोखाधड़ी व असत्य का अनुसरण
जो सदा करते रहे जीवन प्रयन्त,
वही सत्य, ईमानदारी के अब पैरोकार हैं।


बेईमानी व भ्रष्टाचार का छाया घना कोहरा ऐसा,
कि सच्चाई की राह अब नहीं आसान है।
सच परखने वाले जौहरी अब मिलते कहाँ,
फ़ूंक-फूंक कर कदम रखना पड़ता है यहाँ,
क्योंकि सच्चाई व ईमान वालों पर अब इल्ज़ाम हैं।।

- बोगल सृजन

Monday 27 November 2017

मेरी_निराश_कविताएं

मेरी_निराश_कविताएं

हाँ, विरोध हो सकता है,
मेरी निराश कविताओं का,
जो तथ्यों पर आधारित तो होती हैं,
मगर कागज़ी चकाचौंध से कहीं दूर,
समाज में फैली आर्थिक व सामाजिक,
विषमताओं की बात करती हैं।

हाँ, विरोध हो सकता है,
मेरी निराश कविताओं का,
जो अवसरवादिता का शिकार न होकर,
चहुँ ओर फैली खामोशी को तोड़,
अपने अधिकारों के लिए एकजुट हो,
आवाज़ बुलंद करने की बात करती हैं।

हाँ, विरोध हो सकता है,
मेरी निराश कविताओं का,
जो ई०एम०आई० पे खरीदे सामान से, 
अपनी झूठी अमीरी जताते मध्यमवर्ग के,
खोखले दिखावे के अंदर बसे हुए,
आर्थिक दिवालियेपन की बात करती हैं।

नहीं फर्क पड़ता मुझे अगर विरोध हो,
मेरी निराश कविताओं का,
जो हर तरफ समृद्धि व खुशहाली न दिखा,
समाज के विभिन्न तबकों की ज़रूरत,
व उसके लिये ज़रूरी,
हर जद्दोजहद की बात करती हैं।

नहीं परवाह विरोध हो अगर,
मेरी निराश कविताओं का,
जो झूठ के इस भयंकर दौर में भी,
जनमानस में झूठी आशा न जगाकर,
हिम्मत, परिश्रम व लगन से काम करके,
स्वंय पर विश्वास करने की बात करती हैं।।

#बोगल_सृजन

Wednesday 22 November 2017

कल_और_आज

कल और आज

इतिहास के पन्नों में अंकित,
हैं कैद कितनी ही गाथाएँ,
जिनमें वीरों ने हैं लाँघी,
जाने कितनी ही बाधाएँ।

इन शौर्य गाथाओं से ही,
हो प्रेरित हम सबने,
अपना भविष्य संवारने के,
हैं बेहतर सपने संजोए।

ऐतिहासिक घटनाऐं हमको,
कुछ सीख हैं सिखलाती,
गर न सीखा कुछ इनसे,
ये खुद को ही दोहराऐं।

कई गौरवशाली व्यक्तित्व हैं ऐसे,
इन ऐतिहासिक गाथाओं में,
जिनके त्याग, बलिदान एवं शौर्य,
प्रभावित हमें आज भी कर जाएं।

पर कल तो कल है,
वो तो बीता हुआ पल है,
जब हो तुलना कल व आज की,
आज ही भारी पड़ जाए।

इतिहास में अंकित ये शौर्य गाथाएँ,
हमारा आज जब खायें,
तो कल को छोड़कर पीछे,
है बेहतर अपना आज ही बचाएं।।

#बोगल_सृजन

Sunday 19 November 2017

सहारा अपनों का

सहारा अपनों का

सहारा छोड़ अपनों का,
निकला था मैं जब बाहर,
लगा ऐसे था मुझको के,
बड़ा कोई तीर मारा है।

बड़ी बेदर्दी से जब मैंने,
दिल अपनों का तोड़ा था,
कहाँ सोचा था तब मैंने  
दर्द का कोई तार छेड़ा है।

लगा मुझको था ये शायद,
कि क्या अपना बेगाना है,
किसी भी गर्ज़ पर अपनी,
मुझे बस बदला चुकाना है।

बेगानों के धोखे ने ही,
सिखाई मुझे अब सीख जीवन में,
कि निश्चल प्रेम व आदर,
बस अपनों से ही मिल पाना है।

सीखा है जो अब मैंने,
वो शायद जान ही न पाता,
कि कीमत अपनों के अहसानों की,
बड़ा मुश्किल लगाना है।।

#बोगल_सृजन

Saturday 18 November 2017

खामोशी की आवाज़

खामोशी की आवाज़

बहुत अहम है ज़िन्दगी में बातचीत,
मैं मानता हूँ मगर फिर भी
मौन रहकर भी कभी बहुत बात होती है।

बहुत अहम है आपसी संवाद,
एक दूसरे को समझ पाने के लिए मगर,
कभी खामोशी ही बहुत कुछ कह जाती है।

माना मुश्किल होगा दर्द बयाँ करना बिन बोले,
मगर जो दर्द पढ़ ही न पाया आँखों से,
उसको दिल की बात क्या ख़ाक सुनाई जाती है?

मैंने कसम नहीं खायी मौन रहने की मगर,
खामोशी में कभी-कभी आवाज़,
आवाज़ से अधिक बुलंद सुनाई जाती है।

- बोगल सृजन

Tuesday 14 November 2017

बचपन

बचपन

चित चंचल और अठखेलियां
जब करने को होता था मन,
जब माँ-पापा की डाँट पर भी,
उपद्रव मचता था हर दम,
जब मासूमियत ही हावी थी
अपनी हर शरारत पर हर क्षण,
जब कुछ पैसे की कुल्फी भी
हमें कितनी खुशी दिलाती थी,
जब जमकर आपस में लड़ते थे,
फिर भी न था कोई बैर भरम,
बड़ा याद आता है मुझको अब,
बीत गया प्यारा बचपन।।

#बोगल_सृजन

Sunday 12 November 2017

एक पिता का पश्चाताप

एक पिता का पश्चाताप

अपनों के गर्म अहसासों से कहीं दूर,
वृद्धाश्रम के किसी कोने में, दिन काट रहा हूँ।
किसे दोष दूँ मैं इस बात का,
जो कभी बोया था कभी खुद, 
आज वही तो काट रहा हूँ।

कभी भरे-पूरे घर में सत्ता थी मेरी,
छोटी से छोटी फरमाइश भी तब,
हर कीमत पर पूरी होती थी मेरी।
अब रुआंसा हो पुरानी तस्वीरें छांट रहा हूँ,
जो बोया था कभी, वही तो काट रहा हूँ।

अभी कल की ही तो बात है जैसे,
जब पुत्रमोह की पट्टी चढ़ा मैंने,
गिड़गिड़ाती पत्नी की करुण याचना को ठुकरा,
अपनी ही बच्चियों को कैसे,
कोख में ही मरवाया था मैंने।

अभी कल की तो बात है जैसे,
जब बेटे के पहला कदम चलने पर,
क्या-क्या जश्न मनाया था मैंने।
उसकी छोटी से छोटी फ़र्माइश को भी,
किसी कीमत पर भी पूरा करवाया था मैंने।

ये भी कल की बात लगती है जैसे,
जब यू०एस० ग्रीन कार्ड वाला मेरा बेटा,
खून पसीने से बना मेरा घर बेच, 
मेरा यू०एस० वीज़ा लेने गया था जो कभी,
फिर कभी फ़ोन भी न कर पाया वो कैसे।

अपनी सोच पर अक्सर सोचता हूँ तन्हाई में,
कि थोड़ी इंसानियत दिखाई होती अगर उस दिन,
तो कभी दर्द बाँट लेती मेरी बेटी इस रूसवाई में,
पर अब क्या मैं बैठा हिसाब कर रहा हूँ,
जो बोया था कभी, वही तो काट रहा हूँ।

-बोगल सृजन

Friday 10 November 2017

मज़दूर की एक हसीन शाम

मज़दूर की एक हसीन शाम

मुद्दतों बाद लगा जैसे शाम आयी,
कभी न खत्म होते दिख रहे,
दिन की हाड़तोड़ मेहनत के बाद,
हथेली पर आया जब मेहनताना, 
तो यूँ लगा जैसे जान में जान आयी।

न, न, कोई लालच नहीं मुझे,
न ही अपने भूखे पेट की आग बुझानी है,
एक दिन भूखा भी रह लूंगा अगर,
अपने लिए कौन सी नई बात है
सिर्फ भूख से नहीं ये जान जानी है।

कई दिनों की भूख के साथ-साथ,
बुखार से तपकर जलते मेरे बच्चे को,
बस गीली पट्टियों से कहाँ नींद आनी है
दिहाडी से दवाई व खाने का जुगाड़ करलूँ अगर,
तो शायद मिट पाए कुछ परेशानी है।

शाम तो रोज़ आती है लगातार बिना रुके,
मगर बिना दिहाड़ी के शाम किस काम की,
जो मेरे घर के ठंडे चूल्हे को गर्म न कर सके,
वो शाम भी क्या करनी जो भूख से जलते 
मेरे बच्चों के पेटों को ठंडा न कर सके।

सो आज की शाम कुछ ख़ास सी है,
बस यही सोचकर भूख व बुखार से तड़पते
बच्चे को छोड़ निकल पड़ा हूँ दिहाड़ी पर,
ताकि एक बेरंगी शाम कुछ हसीन बन पाएगी,
जो मेरे परिवार के पेट की आग बुझाएगी।।

- बोगल सृजन

Saturday 4 November 2017

अलंकार विहीन कविताएं


मैं ये भली-भांति जानता हूँ
कि अलंकार विहीन,
साधारण जनमानस के साधारण विषयों पर
चर्चा करती मेरी नीरस कविताएं,
नहीं पढ़ी जाएंगी बड़े-बड़े कवि-सम्मेलनों में।।

कोई अवसाद नहीं हैं मेरे मन-मस्तिष्क में,
बस आस है कि बन्द दरवाज़ों में न पढ़ी जाकर,
आम जनता का दर्द बयां करती मेरी कवितायें
कभी खुले मैदान में जनसाधारण के
विशाल जनसमूहों में पढ़ी जाएं।।

मैं चाहता हूँ कि मज़दूरों की अथाह मेहनत,
उनके दुख-दर्द व अधिकारों पर बोलती
मेरी गरीब व लाचार कविताएं,
विलासता प्रदर्शित करते ए सी हॉल में नहीं
बल्कि मज़दूरों के विशाल जनसमूह में पढ़ी जाऐं।।

मैं आशा करता हूँ कि कर्ज़ के बोझ के चलते,
फांसी के फंदे चुनते किसानों की व्यथा कहती,
मेरी निराशावादी कविताएं,
अपने अधिकारों के लिए संगठित होते,
किसानों के बीच पढ़ी जाएं।।

- बोगल सृजन

Monday 30 October 2017

कैसी_नींद

कैसी नींद

किसी को यहाँ हिन्दू चाहिए,
तो किन्हीं को बस मुसलमान।
जाने किस नींद में जी रहे हैं हम,
कि भूल बैठे हैं कि हम हैं इंसान।

किसी के दर्द का हमें अहसास नहीं,
कैसे कठोर हो गये हैं नहीं पड़ता जान।
जाने किस नींद में जी रहे हैं हम,
कि भूल बैठे हैं कि हम हैं इंसान।

एकता-अखण्डता की यहाँ बस बातें होती,
और दिलों में बस घृणा है विद्यमान।
जाने किस नींद में जी रहे हैं हम,
कि भूल बैठे हैं कि हम हैं इंसान।

धार्मिक द्वेष का ऐसा चश्मा चढ़ा कि,
बच्चे, बूढे व कमजोरों की भी न रहती पहचान।
जाने किस नींद में जी रहे हैं हम,
कि भूल बैठे हैं कि हम हैं इंसान।

#बोगल_सृजन

Saturday 28 October 2017

समान शिक्षा का अधिकार ??

समान शिक्षा का अधिकार ??

हाँ सुना तो है हमने कि
हमारे महान लोकतंत्र का संविधान,
किसी अन्य मौलिक अधिकार जैसे ही,
छोटे-बड़े या गरीब-अमीर का भेद जाने बिना,
सभी को समान शिक्षा का अधिकार देता है।

जब दिखती हैं हमें सर्व शिक्षा अभियान व
शिक्षा के अधिकार जैसी सरकारी योजनाऐं,
जब निजी स्कूल की लक्ज़री बस से निकलते बच्चे
भारत के उपग्रह कार्यक्रम पर चर्चा करते दिखें
तो यह यकीन पुख्ता होने लगता है।

मगर उसी बस के सामने से फटी नज़रों से,
फटेहाल जूते व मैली वर्दी पहने और
फ़टी पुरानी किताबें लिए गुज़रते हैं जब
किसी सरकारी स्कूल के बच्चे,
तो अभी-अभी पुख्ता हुआ यकीन धुंधला होने लगता है।

थोड़ा आगे चलकर उसी सरकारी स्कूल में,
पढ़ाई की आस लगाए छात्रों को पढ़ाना छोड़,
मिड डे मील के अनाज का हिसाब करते व
आने वाले किसी सरकारी सर्वे में ड्यूटी को कोसते
शिक्षकों को देख, शिक्षा का हाल कुछ और नज़र आता है।

मिड डे मील व् अन्य सरकारी ड्यूटियों से फारिग
शिक्षकों  के बचे हुए समय में पढ़ते सरकारी स्कूल के छात्रों व् 
किसी निजी स्कूल की संपन्न प्रयोगशाला में ,
एकाग्रता से हर प्रश्न का उत्तर पाते छात्रों को देख,
समान शिक्षा के अधिकार का भ्रम जाल टूटने लगता है। 

अब दोष चाहे सरकारी शिक्षकों पर लाद दें,
शिक्षकों से शिक्षा छोड़ अन्य ड्यूटियां लेती सरकारी नीतियों पर,
कम आय के चलते अपने बच्चों को निजी स्कूलों में 
पढ़ा पाने में असमर्थ अभिवावकों पर लाद दें,
मगर शिक्षा के समान अधिकार हैं ये तो नहीं लगता है। 

जब देश में व्याप्त दोहरी शिक्षा नीति के चलते,
सभी नौनिहालों को शिक्षा के समान अधिकार न मिल पाएं,
जब सरकारों की रूचि बच्चों को समान शिक्षा भूलकर, 
किन्ही और चीज़ों में हो तो अपने देश के भविष्य से,
बहुत ज़्यादा उमीदें रखना बेमानी लगता है।। 

- बोगल सृजन 

Wednesday 25 October 2017

रचनाओं पर प्रश्न

रचनाओं पर प्रश्न


हाँ, मैंने माना कि
प्रेम के गीत मैं नहीं लिखता,
प्रकृति की सुंदरता का बखान करती
कोई रस भरी कविता भी मैं नहीं लिखता।

मैंने ये भी माना कि
अपने चहुँ ओर फैली चकाचौंध से
प्रतीत होती खुशहाली व समृद्धि पर भी,
मैं कुछ नहीं लिखता।

ये आरोप भी मैं ले लेता हूँ कि
विकास के नाम पर बन रही
गगनचुंबी इमारतों व पुलों आदि की
तारीफ सुनाता कोई नगमा मैंने नहीं लिखा।

ये सब मानता हूँ फिर भी
श्रृंगार रस पर लिखुं मैं लगता तो नहीं,
क्योंकि यौवन का रसपान करती रचनाएं,
बहुत लिखी गयी और लिखी जाएंगी।

समृद्धि व खुशहाली व चकाचौंध,
जो नज़र आती है कुछ दूर तलक,
कथाएं व कविताएं उनपर भी,
बहुत कही गयी और कही जाएंगी।

मगर जाने क्यो मेरी रचनाएं,
विलासता से भरपूर विशाल महलों को चीरती,
कटी-फ़टी तिरपाल से ढ़की हुई,
किसी गरीब की झोंपडी पे जा रुकती हैं।

जाने क्यों मेरी कविताएं,
मेहनतकशों के खून-पसीने से अर्जित
धन से समृद्ध धनिकों का महिमामंडन न करके,
मज़दूर की बद्तर हालत पे जा टिकती हैं।

नाना प्रकार के व्यंजन पकते हैं जब,
मेरी रसोई में फिर भी क्यों मेरी कविताएं,
फाँसी का फंदा तलाशते, कर्ज़ में डूबे,
अन्नदाता किसान पर ही जा रुकती हैं।

हाँ, ये अपराध ही है मेरा,
कि मेरी रचनायें चकाचौंध से परे,
सामाजिक कुरीतियों के बारे, व
साधारण जनमानस का दुख-दर्द सुनाती हैं।

- बोगल सृजन 

Tuesday 17 October 2017

काला धन: सफेद धन

काला धन: सफेद धन

धन तो धन बाज़ार में,
जब निकल पड़े लुटाने,
धन काला है या सफेद है,
ये कैसे कोई पहचाने ?

मैं सच्चा हूँ, हर कोई बोले,
चुराये हों चाहे कितने ख़जाने।
पर सच्चा शायद चीखे चिल्लाये,
उसकी फिर भी कोई न माने।

झूठ-सच और सफेद-काले का,
क्या कोई अंतर पहचाने,
घर भरते जो खुद काले धन से
वो ओरों को चले ईमान सिखाने।

सच्चाई-ईमान पर चलने वाले,
कहाँ ढूंढते फिरते हैं बहाने।
वो तो सदा सत्य-निष्ठा से चलते,
चाहे अपने-पराये भी कदर न जाने।

सफेद और काले धन की,
ये कथा कबतक चलेगी जाने।
शायद नीयत नहीं है कुछ करने की,
बस करके दिखाएंगे बहाने।

- बोगल सृजन 

Sunday 15 October 2017

भूख_का_मजहब

भूख_का_मजहब

न ये मस्जिद की चौखट,
न तो कोई शिवाला जानती है,
न इसको कुछ गिरजे से लेना,
न ये कोई गुरुद्वारा जानती है,
ये तो पेट की आग है साहब,
ये तो रोटी का निवाला जानती है।

वही चेहरे जो भूख मिटाते दिखे थे
मुझे कल मस्जिद की चौखट पर।
आज उन्हीं को गुरुद्वारे के लंगर में
पेट की आग मिटाते देखकर आया हूँ,
तब से धर्म बड़ा है या भूख,
इसपर फैसला ही नहीं कर पाया हूँ।

जब तक पेट में अन्न होता है 
तब तक हम मज़हबी फ़साद हज़ार करलें,
पर पेट की आग जब मजबूर करदे और दूर तक
जब भूख मिटाने को कुछ न हो,
तब भूख ही ज़ात भूख ही मजहब,
पड़े रह जाते बाकी मजहब सारे हैं।

- बोगल_सृजन

Saturday 14 October 2017

लघु कथा - आपको कैसा लगता है??

लघु कथा - आपको कैसा लगता है??

अनमोल करीब 7 साल का बच्चा है। उसके पिता अमित किसी सरकारी कार्यालय में कार्यरत हैं और उसकी माँ कविता किसी निजी विद्यालय में अध्यापिका हैं। अनमोल कक्षा दूसरी में पढ़ रहा है और वह बहुत बातूनी लेकिन बुद्धिमान बालक है। अपनी आयु से बड़ी व अनोखी बातें पूछना उसके लिए साधारण बात है।

अपने माँ-बाप से भी वह अक्सर बहुत कुछ पूछता है, जैसे कि आप लोग कौन से स्कूल में पढ़ते थे, कौन से कॉलेज में पढ़ते थे, इकट्ठे पढ़ते थे या अलग-अलग पढ़ते थे। आप दोनों की शादी कब हुई और कैसे हुई। क्या आप दोनों शादी से पहले एक दूसरे को जानते थे?

अमित और कविता भी बहुत आज़ाद विचारधारा रखते हैं व जहां तक हो सके अनमोल के हर प्रश्न का उत्तर देते हैं ताकि नई-नई चीजों को जानने की व समाज को समझने-बूझने की प्रक्रिया जो एक बच्चे में स्वाभाविक रूप से होती है वो उसके अंदर विकसित हो।

आजकल अनमोल बहुत उत्सुक है क्योंकि उसकी इकलौती मौसी की शादी जो आने वाली है और छोटा होने की वजह से शादी से संबंधित हर खरीददारी में, मसलन दहेज के लिए खरीदे जा रहे इलेक्ट्रॉनिक गैज़ेटेस, फर्नीचर या सुनार आदि, वह अपने माँ-बाप के साथ ही रहता है। बड़े चाव से चीज़ों को देखना और उनके बारे में प्रश्न ऐसे कि  आसपास के लोग भी सुनकर हंस पड़ें।

खरीददारी के बाद घर आकर एक दिन अनमोल ने अमित से पूछा, पापा ये मौसी जी की शादी के लिए मामूजी और नानूजी इतना सामान क्यों खरीद रहे हैं?
अमित ने कहा, बेटा ये सब सामान मौसीजी की शादी में उपहार के तौर पर दिया जाएगा।
इसपर अनमोल बोला कि इतने सारे उपहार क्यों दे रहे हैं मौसा जी को। क्या उनके घर में सामान नहीं है?
अमित ने अनमोल को समझाते हुए बताया कि ये हमारे समाज का एक पुराना रिवाज़ है जिसके तहत लड़की के माता-पिता लड़के तो शादी में उपहार या दहेज़ देते हैं। 

ये सब बातें सुन नन्हा अनमोल चुप सा हो गया और कुछ सोचने लगा।  कुछ देर सोचने के बाद फिर से बोला, पापा, क्या आपने भी अपनी शादी में नानूजी से दहेज़ लिया था, उनके तो सारे पैसे ही ख़त्म हो  होंगे।  

इसपर अमित ने अपने बेटे को जवाब दिया, नहीं बेटा दहेज़ हमारे समाज का एक पुराना मगर बुरा रिवाज़ है और इसीलिए मैंने अपनी शादी के वक्त तुम्हारे नानुजी प्राथना की थी की मुझे दहेज़ नहीं लेना जो उन्होंने स्वीकार कर लिया था। 

अच्छा, अन्मोल बोला, उसके चेहरे पर कुछ शान्ति थी मगर शायद अब भी कुछ सवाल उसके नन्हे मन में उबाले मार रहे थे।  कुछ देर चुप रहने के बाद वो फिर अमित से बोला, पापाजी, मौसाजी के लिए जो नानुजी इतना सामान ले रहे हैं आपको कहीं बुरा तो नहीं लग रहा ??

अनमोल के प्रश्न से अमित अवाक सा रह गया।  उसे चुप कराते हुए पास बैठी कविता गुस्से से बोली, अनमोल, ये कैसी बाते कर रहे हो आप अपने पापा से।  चलो उनको सॉरी बोलो। 

अमित ने कविता को चुप कराते हुए बोला, कोई बात नहीं बेटा, मैं बताता हूँ मुझे दिल से कैसा लग रहा है नानू जी का तुम्हारे मौसा जी के लिए दहेज़ का सामान खरीदते हुए देखकर। 

हाँ, सच में मुझे बहुत बुरा लग रहा है कि दहेज़ जैसी कुरीति के खिलाफ आज भी लोग नहीं खड़े होते जब हर साल हज़ारो बेटियां दहेज़ के कारण प्रताड़ित होती हैं क्योंकि कुछ गरीब माँ-बाप दहेज़ नहीं दे पाते।

इसके साथ इस बात की बहुत ही ज़्यादा ख़ुशी भी है की आज से 9 साल पहले  भी मैं इतनी समझ  रखता था कि दहेज़ एक सामाजिक बुराई है। 


- बोगल सृजन 

Sunday 8 October 2017

दोष किसका??

दोष किसका??

चलिए मान ही लेते हैं कि
अंधेरे में घर से बाहर निकलना,
महिलाओं का अकेले में,
बिल्कुल ठीक बात नहीं है।

चलिए ये भी मान लेते हैं कि,
कुछ पश्चिमी परिधान पहनना महिलाओं का,
उकसाता है भोले-भाले मर्दों को,
इसलिए वो भी ठीक बात नहीं है।

चलो ये इल्ज़ाम भी मान ही लेते हैं कि,
धार्मिक स्थलों को छोड़कर महिलाओं का, 
क्लबों-पबों में दारू पीकर झूमना,
मर्दों को उकसाने वाली बात है।

मगर स्त्रियों की दिनचर्या तय करने वाले, 
महानुभाव ज़रा ये तो बता दें कि
दिन के उजाले में महिलाओं पे,
क्या कभी नहीं होते अत्याचार हैं??

स्त्रियों के वस्त्रों पर प्रश्न करने वाले ये भी बतायें
कि कैसे रुकेंगे स्त्रियों पर बढ़ते यौन हमले,
जब बुर्क़ा पहनने वाली महिलाएं व
दुधमुंही बच्चियां तक होती दरिंदगी का शिकार हैं।

खुद हर ऐब पाल स्त्रियों पर प्रश्न करने वाले,
ये क्यों नहीं समझ पाते कि
जब गंदगी अपनी सोच में, अपनी नज़र में है तो,
महिलाओं पे क्यों प्रश्न हज़ार हैं????

बोगल सृजन

Wednesday 4 October 2017

प्रेम तो प्रेम है

प्रेम तो प्रेम है

ये लव जिहाद क्या बला है,
क्या किसी को समझाइये?
अगर पता चले आपको इस बारे में तो, 
कृपया हमें अवश्य बतलाइये।

लव जिहाद नामक शब्दावली भी,
हिंदी भाषा में बहुत पुरानी नही है
कुछ वर्ष पीछे जाएं हम अगर,
इस शब्द की कोई निशानी नहीं है।

अंतर्धार्मिक विवाह होते सदियों से,
ये बात कोई अनजानी नहीं है,
कभी राजनैतिक गठबंधन तो कभी सिर्फ प्रेम,
पर ऐसी क्रूर परिभाषा की कोई निशानी नहीं है।

फिर क्यों साधारण जन मानस की 
भावनाओं का बनाया जा रहा मज़ाक है,
वो करें अगर तो बस प्रेम है ये
हम करें अगर तो क्यों लव जिहाद है??

प्रेम तो एक बहुत पवित्र शह है 
कृपया इसे धर्मों में न तौलिये,
राजनीति करने के लिए बहुत कुछ है
इसे प्रेम में तो न घोलिये।।

- बोगल सृजन

Saturday 30 September 2017

बच्चे और बचपन

बच्चे और बचपन

क्या होते हैं बच्चे,
गीली मिट्टी के जैसे, 
कोई भी आकार लेने को तैयार,
सच-झूठ के फरेब से दूर,
कोमल हृदय लिए भोले-भाले मासूम बच्चे।

क्या-क्या करते हैं ये बच्चे,
कभी कोई अनहोनी ज़िद मनवाते,
कभी अपने प्रिय कार्टून के,
या टीवी के किसी किरदार के 
भारी-भरकम डॉयलाग दोहराते ये बच्चे।

हम तो चाहते हैं कि हूबहू 
हमारे कहने पर चलें ये बच्चे,
उनकी टीवी की शब्दावली से भर्मित,
हमें लगता है शायद बड़े हो गए हैं वो,
मगर हैं तो वह अभी भी मासूम व अबोध बच्चे।

शायद इतने बड़े हो गए हैं हम,
अपनी ज़िंदगी की भाग-दौड़ में कि,
अपने बचपन की नादानियां भूलकर,
अनजाने में इनका सुंदर बचपन छीनकर,
नहीं रहने दे रहे हैं इनको बच्चे

माना उम्मीदें बहुत हैं हमें उनसे,
हाँ होनी भी चाहिए,
मगर अपना बचपन जीकर,
उन उम्मीदों का बोझ उठाने के लिए,
पहले तैयार तो हो जाएं ये बच्चे

बचपन है तो बचपना भी होगा,
कैसे हो जाएं आप और हम जैसे ये बच्चे,
मुश्किल तो है फिर भी,
अगर जी पायें कुछ बचपना इनके सँग फिर से,
शायद सोच पायें क्या होते हैं बच्चे???

- बोगल_सृजन

Thursday 28 September 2017

मानसिक रोग: दशा व दिशा

मानसिक रोग: दशा व दिशा

हमारे किसी अन्य अंग की तरह,
दिमाग भी शरीर का अभिन्न हिस्सा है,
ये तो हम सभी जानते हैं,
पर ये बात क्या हम सच में मानते हैं??

रोग हो जाए किसी भी अंग में अगर,
तो चिकित्सक के पास हम दौड़े जाते हैं,
पर दिमाग की समस्या होने पर,
फिर क्यों सबसे छिपाते हैं??

मनोरोग भी तो रोग ही है आखिर,
फिर क्यों लोग इसमे झाड़-फूंक तो करवाते हैं,
पर इसे कोई समाजिक बुराई मानकर,
किसी मनोचिकित्सक के पास नही जाते हैं।

रवैया समाज का भी दिमागी बीमारी के प्रति,
बहुत उदासीन ही नज़र आता है,
क्योंकि दिक्कत कुछ भी हो दिमाग में अगर,
लोग ऐसे व्यक्ति को पागल ही बताते हैं।

दिमागी दिक़्क़तों के प्रति उदासीनता के चलते,
मनोचिकित्सक भी काम में रुचि कहाँ दिखाते हैं,
किसी तरह जो रोगी पहुंचते भी हैं उनको भी वे,
परामर्श कम और दवाईयां अधिक चिपकाते हैं।

बेरोजगारी, बंटते परिवार व अन्य परेशानियाँ
सभी में मानसिक तनाव तो बढ़ा रहे हैं,
फिर भी क्या हम इसे एक रोग या समस्या मानकर,
सही तरह से उपचार करवा रहे हैं??

- बोगल सृजन

Sunday 24 September 2017

नई सुबह की उम्मीद

नई सुबह की उम्मीद

भय, बुराई व अज्ञानता की प्रतीक,
अमावस की रात के घने अँधेरे के उपरान्त,
स्वर्ण सी दमकती सूर्य की किरणों संग,
नूतन एवं स्वच्छ परिवेश में नयी उम्मीदें लेकर,
फूट पड़ती है जैसे भोर की नवीन लालिमा,

वैसे ही रोम-रोम में घृणा की विकृत मानसिकता,
जो छाई है काया के किसी अभिन्न अंग सी,
ऐसे हर भाव को मन मस्तिष्क से निकाल फेंक,
हृदयों में प्रेम व कोमल भावों का संचार कर दे,
जीवन की किसी सुबह में कभी आएगी ऐसी नवीन लालिमा?

ये कैसी कठोरता की भूख के लिए क्रंदन करती,
अबलाओं व मासूमों के रुदन से कहीं अधिक,
हमें उनके प्रति धार्मिक द्वेष नज़र आता है।
किसी बुरे स्वपन की भाँति  ये सब भुला,
प्रेम व भाईचारे की देख पाएंगे हम नयी सुबह??

#बोगल_सृजन 

Wednesday 20 September 2017

भूखे नंगों के अधिकार

भूखे नंगों के अधिकार

मेरे किसी प्रियजन ने 
एक रोज़ मुझसे पूछा जो,
कि जीवन में सब कुछ है
जब सुख सुविधाओं के लिए,
और अच्छा भला कमा लेते हो,
तो फिर ये क्या पागलपन है 
जो सदा भूखे नंगों के, दलितों के,
गरीबों, किसानों के, व हर दबे-कुचले के,
अधिकारों की बात करते हो।।

समझाने के लहजे से मुझे फिर बोला वो,
कि माना समाज सेवा का पाठ, जो 
पढाया था गुरुजी ने कक्षा में कभी,
वो अभी तक तुम नहीं भूले हो,
फिर भी अगर तुम बस
किसी अभागे को भोजन करा दो,
किसी बच्चे को पुस्तकें खरीदकर दो,
या किसी संस्था को दान ही दे दो
शायद उसी से तुम्हें आत्मसन्तुष्टि जाए हो।।

बहुत देर टालने के बाद भी जब उसने 
मेरा उत्तर जानने की उत्सुकता दिखाई,
फिर मैंने भी उसको ये बात बताई,
कि माना भूख मिट जाएगी एक भूखे की,
अगर मैने रोटी उसको खिलाई।
और पढ़ पायेगा कोई एक,
अगर किसी बच्चे को किताबें दिलाई।
मगर हर भूखे की भूख मिट पाए व
हर ज़रूरतमन्द बच्चे को किताबें मिल पायें,
इसीलिए उनके अधिकारों की बात थी उठायी।।

वैसे भी सीमित संसाधन हैं मेरे,
और कोई टाटा-बिड़ला भी मैं हूँ नहीं,
अपने घरेलू कर्तव्यों को निभाने के बाद,
सब की ज़रूरत अपने थोड़े से समय व धन से
मैं अकेले तो पूरी कर सकता नहीं।
इसीलिए तो हर गरीब को, हर किसान को,
हालात व समाज से शोषित हर तबके को,
भूख से बिलखते हर बच्चे को,
अपना हर जायज़ हक मिल पाए,
ये आवाज़ गर मैने उठाई तो कुछ गलत तो नहीं।।

#बोगल_सृजन

Sunday 17 September 2017

डर का कारोबार

डर का कारोबार

जो घुट्टी में ही था हमें पिलाया गया,
नन्ही सोच को बस उलझाकर,
कभी न फिर जो सुलझाया गया,
कब तक ये बचकाना खेल चलेगा,
कब तक ये डर का कारोबार चलेगा?

अबोध बचपन से ही अंधेरे में जाने पर,
न था हमें अच्छी तरह समझाया गया,
बस भूतों का नाम लेकर डराया गया,
झूठ कबतक ये सब बारम्बार चलेगा,
कब तक ये डर का कारोबार चलेगा?

विद्यालय में भी यही पैंतरा अपनाया गया,
शिक्षा व ज्ञान का महत्व न समझाकर
कभी डंडे का तो कभी कोई और डर दिखाया गया,
न जाने कब ये निज़ाम बदलेगा,
कब तक ये डर का कारोबार चलेगा?

सच्चाई, ईमानदारी व दया आदि
मानवीय भावनाओं को बचाये रखने के लिये,
क्यों ईश्वर या खुदा से हमें डराया गया,
बिना किसी डर कभी इंसान, इंसान बनेगा,
फिर जाने कब तक ये डर का कारोबार चलेगा?

बोगल सृजन

Wednesday 13 September 2017

मेरी_पहचान

मेरी_पहचान

वैसे तो स्वाभाविक बात है कि
प्रभावित हो सकता है कोई भी,
किसी प्रतिभाशाली खिलाड़ी से,
किसी दिग्गज नेता की नीतियों से,
किसी महान दार्शनिक के विचारों से,
किसी वैज्ञानिक से या किसी खगोलशास्त्री से,
किसी अर्थशास्त्री से या समाज शास्त्री से,
वर्तमान या भूतकाल के किसी भी व्यक्तित्व से,
मगर फिर भी नहीं चाहता स्वंय की तुलना,
ऎसे भी किसी महानुभाव से।

माना अधिकांश के लिए अनजान हूँ,
निर्बल व साधारण सा इक इंसान हूँ,
किसी अन्य मनुष्य की ही तरह  
प्रभावित मैं भी हो सकता हूँ
किसी भी महान व्यक्तित्व से,
मगर फिर भी, 
कोई और नहीं, मैं तो मैं हूँ,
बस इसीलिए प्रयासरत हूँ, सदा
ताकि न हो मेरी तुलना किसी अन्य से
क्योंकि अलग चाहता मैं अपनी पहचान हूँ।

- स्वर्ण_दीप_बोगल

Sunday 10 September 2017

ONE EVENING WALK

ONE EVENING WALK

It was lovely evening and Sunanda, a young lady is walking towards the park alongwith her 6 years old daughter Sneha holding her hand . In the park, they saw a well dressed old man playing different games with a group of kids. When Sunanda was passing them he requested her to allow Sneha to play with them.

Sneha told her mother that she used to play with that uncle daily during the evening walk with dad. Sunanda allowed her to play but she was curious to know about the old man. Sunanda tried to know about the old man and one of her neighbour told her that he lives alone in a big house as his wife has passed away and his only son alongwith his family is settled abroad. He love to play with the kids in the park daily to kill his loneliness and whenever kids are busy during exams or something else he is very sad.

Sneha was playing and Sunanda during the walk was still thinking about that old man. Sunanda felt the feeling of hapiness in the eyes of old man while playing with kids and was thinking what would be our fate when we grow old????

- SWARN DEEP BOGAL

Saturday 9 September 2017

लोकतंत्र का विकास?

लोकतंत्र का विकास?

वाद-विवाद व सकारात्मक बहस,
जब लगे गुज़रे ज़माने की बात है,
राजनैतिक व वैचारिक विरोध के
हल्के से स्वर पर भी हो हल्ला मचा देना,
जब लगे जैसे आम बात है,
तो कब तक झूठा दम्भ भरेंगे कि
महान लोकतंत्र की हम मिसाल हैं।

विचारों पर भी जब हर प्रहर पहरा है
विरोध की स्याही सोखकर
कलम का जैसे गला घोंटा जा रहा है,
रचनाकार जब कलात्मकता छोड़,
हवा के रुख के हिसाब से लिख रहा है
तो कब तक झूठा दम्भ भरेंगे कि
हमारे महान लोकतंत्र का विकास हो रहा है।

लोकतंत्र का चौथा स्तम्भ भी जब
काँपता-थरथराता नज़र आ रहा है,
मर्यादित मूल्यों को छोड़ जब वह,
कभी डरकर तो कभी लोभ में,
सत्ता के गलियारों में लौटता नज़र आ रहा है,
तो कब तक झूठा दम्भ भरेंगे कि
हमारे महान लोकतंत्र का विकास हो रहा है।

- स्वर्ण दीप बोगल

Monday 4 September 2017

कविता - नमन_गुरुवर_को

नमन_गुरुवर_को

नित नमन करूँ गुरुवर को,
जो करते रहे सदा प्रेरित,
शिक्षा को जीवनशैली की तरह,
प्रेम से समझाकर,
अपने प्रिय शिष्यगण को।

नित नमन करूँ गुरुवर को,
जो करते रहे सदा प्रेरित,
सरगम की धुनें सिखाकर,
सुर-ताल का अर्थ समझाकर,
अपने प्रिय शिष्यगण को।

नित नमन करूँ गुरुवर को,
जो करते रहे सदा प्रेरित,
जीवनयापन की हर राह में,
छोटे बड़े हर व्यवसाय में, 
अपने प्रिय शिष्यगण को।

नित नमन करूँ गुरुवर को,
जो करते रहे सदा प्रेरित,
दीपक से  हो प्रज्वलित,
ज्ञान के प्रकाश का करने को प्रवाह,
बिना किसी लोभ-मोह के सदा।।

#स्वर्ण_दीप_बोगल

Saturday 2 September 2017

गुरु व भक्त का नाता

गुरु व भक्त का नाता

भक्त और भगवान का,
तो नाता ही बड़ा कमाल है,
जहाँ भक्त चरण रज और
प्रभु जी का स्वरूप विकराल है।

जब भक्त इतना तुच्छ
और भगवान इतने विशाल हैं,
तो प्रश्न करना अपने प्रभु रूपी बाबा से,
भक्त के लिए जैसे महापाप है।

क्योंकि भक्त अपने गुरु या बाबा की तुलना में,
खुद को बेहद सूक्ष्म व निरर्थक पाता है,
तभी तो उसे अपनी कुंद्ध सोच पे,
प्रभु विरुद्ध सोचने पर ताला नज़र आता है।

उसको अपने गुरु द्वारा किये गये,
बस सामाजिक कार्य ही नज़र आते हैं,
बंद दरवाजों में किये गए कुकृत्य,
तो उससे वैसे भी छुपाये जाते हैं।

तो प्रश्न उस भावुक भक्त से,
हम भी भला क्या करें,
जो अनजान गुरु के चरित्र से
बस भक्ति व प्रेम करे।

पर इक प्रश्न बड़ा गम्भीर सा है,
जो सभी के मन टटोलता है,
कि क्यों साधारण जनमानस फंस रहा है,
इन बाबाओं के ढेरों में??

- स्वर्ण दीप बोगल
To be continued......

Friday 1 September 2017

How can I pay u back dad

How can I pay u back dad

Whenever I was scared 
of any silly thing,
during my childhood,
You were always there.

Whenever I needed some toy,
which my friend has,
For providing me the same,
From anywhere, u were always there.

Whenever I needed,
Any thing in student life,
without being bothered abt ur budget,
You were always there.

Whenever I needed any money,
For my personal issues,
without caring for 
your pension account balance,
You were always there.

How can I pay back u dad,
When for meeting my every wish,
Throughout lifetime,
Like a superhero without caring for u
You were always there.

-Swarn Deep Bogal

Thursday 31 August 2017

कवित - मैं_पेड़

#मैं_पेड़

फल देता हूँ,फूल भी देता,
गृह निर्माण को लकड़ी हूँ देता,
प्राणदायक वायु भी देता।

तपती गर्मी की दोपहरी में,
अपनी छाओं से ठंडक देता,
बाढ़ों में बहती मिट्टी को
जड़ों से अपनी मैं जकड़े रखता।

ज़िंदा हुँ या कटा हुआ मैं,
मेरी काया का हर इक हिस्सा,
तना, जड़ें या हर पत्ता,
इंसानों के काम ही आता।

मानवता का सच्चा सेवक
क्या-क्या न मैं कष्ट उठाता
अपने भविष्य के लिए ही 
अंधाधुंध हमें न काटो,
मैं पेड़ ये अर्ज़ सुनाता।।

#स्वर्ण_दीप_बोगल

Tuesday 29 August 2017

तालाब_सी_स्थिरता

#तालाब_सी_स्थिरता

तालाब के ठहरे पानी सी,
ताज के ऊँचे खड़े-खड़े,
सदियों से पड़े मीनारों सी,
डल के चार-चिनारों सी,
स्थिरता चाहूं मैं जीवन में,
न चाहूँ भागा-दौड़ी सी

स्थिरता की चाह भी कुछ हद तक,
जीवन में लगे ज़रूरी सी,
पर तालाबों के स्थिर पानी सी,
जीवन में दुर्गंध न हो।
और बरसातों के पानी सा फिर,
पुनः ऊर्जा का संचार भी हो।

#स्वर्ण_दीप_बोगल

Monday 28 August 2017

कविता - सत्यमेव जयते

सत्यमेव जयते

ये कैसा चला है दौर
ये कैसी है हवा चली 
जहां सत्यमेव जयते को 
माना जाता था संस्कार कभी,
वहीं सत्य साबित करने में मुश्किल पड़ी

जो सत्य की गई थी लौ जगाई
वो लौ तो आज ओझल हो चली
क्योंकि सत्य के रक्षकोंं के लिए
राह में खड़ी हैं मूसीबतें बड़ी,
जान की बाज़ी भी उनको कभी लगानी पड़ी।

सत्य और न्याय की डगर
जो आज लगती है आज मुश्किल बड़ी
कभी आसान तो पहले भी न थी
मगर सत्य के सिद्धान्त पे चलने वालों के
साहस में भी कभी कमी न थी

तो गर जारी रखनी है हमें
सत्य व न्याय की लंबी जंग,
दृढ़ संकल्प से बिना परवाह किये,
राह में आने वाली परेशानियों के,
सदा रहना होगा सत्य के अंग-संग।

- स्वर्ण दीप बोगल