Sunday 15 July 2018

विरासत


"क्या हुआ, किसका फोन था," अपने ही डेस्क से मैंने हड़बड़ाहट में बात करते अनिल से पुछा।

मेरी बात को अनसुना करते हुए वो फ़ौरन मैनेजर के कमरे की ओर दौड़ा और मैं भी उसके पीछे-पीछे।

अनिल पंजाब के एक गाँव का रहने वाला है जो पिछले दो वर्षों से मेरे साथ दिल्ली में एक मल्टीनेशनल कंपनी में काम करता है। मेहनती व् ईमानदार होने के साथ ही वह एक अच्छा इंसान भी है और उसके ज़िंदादिल व् एक-दूसरे की परवाह करने के स्वभाव के चलते वो मेरा एक अच्छा मित्र भी बन गया था। हाँ, उसकी एक एक बात मुझे पसंद नहीं थी कि वो कंजूस बहुत था।

अपने गाँव के खेतों में बीते उसके बचपन की बातें वो अक्सर सुनाया करता। वो बताता था कि उसके पिताजी ने दिन-रात खून-पसीना एक करके उसे पढाया। वो ये भी बताता था कि कैसे स्कूल के बाद सभी भाई-बहन मिलकर खेती के कामों में अपने पिता का हाथ बंटाया करते थे।

उड़ा सा चेहरा लिए मैनेजर के कमरे से निकलते अनिल से मैंने फिर पूछा, हुआ क्या है भाई?
"पिता जी नहीं रहे", इतना कहकर मेरे गले लगकर वो फूट-फूटकर रोने लगा।

अनिल को गाड़ी में बिठाकर मैं वापिस ऑफिस लौट आया ये याद करते-करते कि अनिल को अपने पिता जी से बहुत लगाव था। अक्सर छुट्टी के दिन जब अनिल कभी मेरे घर आता तो सदा अपने पिताजी व बड़े-बड़े खेत-खलिहानों की ही बातें सुनाता।  उसने बताया था कि जब वो बहुत छोटा था कैसे उसके पिताजी उसे कंधे पर बिठाकर खेतों की सैर कराते थे।

बहरहाल, 12-15 दिनों पश्चात अनिल वापिस दफ्तर आ गया। निजी क्षेत्र की नौकरी में ज़्यादा दिनों की छुट्टी का अर्थ तो हम सब जानते हैं।

पिताजी के देहांत के बाद अनिल कुछ चुपचाप व कटा-कटा सा रहने लगा था। उसके ऐसे व्यवहार से मेरे दिमाग में कई प्रकार के प्रश्न उठ रहे थे। मगर हम आज के मतलबी व लालची लोगों का दिमाग फायदे और नुकसान से आगे कुछ सोच ही नहीं सकता। मेरे दिमाग में चल रहा था कि अनिल तो अब अपने पिताजी के बड़े-बड़े खेत-खलिहानों का मालिक हो गया है शायद तभी वह कुछ बदल से गया हो क्योंकि मैंने अक्सर लोगों को विरासत में ज़मीन-जायदाद मिलने के बाद बदलते देखा है।

सो, मैंने भी उत्सुकतावश एक दिन अनिल से पूछ ही लिया कि तुम्हे पिताजी से विरासत में क्या-क्या मिला है?

कुछ देर तक चुप रहने के बाद अनिल ने बताया कि
मेरी पढ़ाई, बहन की शादी व माँ की बीमारी में एक-एक करके सब खेत बिक गए थे मगर पिता जी ने मुझे कभी पता नहीं चलने दिया ताकि मेरी पढ़ाई में कभी बाधा न पड़े। आधा पेट खाना खाकर दिन-रात खेतों में मज़दूरी करके वो कमजोर होते चले गए जिसके चलते उनका कमजोर शरीर ज़िन्दगी की जद्दोजहद में मौत के आगे हार गया।

हाँ, विरासत में मुझे पिताजी का कर्ज मिला है जिसे मैं जी जान से चुकाऊंगा व मेरे पिताजी के खेतों को वापिस लाऊँगा।
काश! उनके जीते जी मुझे ये विरासत मिली होती तो शायद आज वो हमारे बीच ज़िंदा होते। हाँ, एक और बात, मैं जानता हूँ कि मेरी कंजूसी तुम्हें अच्छी नहीं लगती मगर मैं छोटे भाई की पढ़ाई के लिए पैसे बचा कर रखता हूँ।
बात खत्म होने के बाद अनिल उठकर चला गया और मैं  वहीं जड़ हो गया था और उसकी बातें मुझे अंदर तक चीरती जा रही थी और मैं शर्म के मारे पानी-पानी हुआ जा रहा था।

लूट लिया

हमको जब लूट लिया
प्यार भरे दो मीठे बोलों ने ही।
हमारी पीठ में फिर
खंजर क्यों उतार दिया ?

जब हम तैयार थे
कि तुझपर जान वार दें।
तुम क्यों सोच लिया कि
मैंने पुराना कर्ज़ उतार लिया।

मुझे क्या पता था

मुझे क्या पता था
कि बेपनाह उम्मीदों से भरा,
छोटी सी पगडंडी से शुरू,
ज़िन्दगी का सफर,
ताउम्र मेहनत के बाद भी,
नाउम्मीदी के सिवा कुछ नहीं देगा।

मुझे क्या पता था
कि हिम्मत व मेहनत के दम पर,
किस्मत बदल डालने का सफर,
जो शुरू किया था हमने,
भ्र्ष्टाचार के इस दौर में,
जाने किस मोड़पर जाकर स्थिर हो गया।।
एक सवाल

एक सवाल है,
आज स्वयं से ही,
कि हम क्या किये जा रहे हैं?
रोज़मर्रा के जीवन की
छोटी-छोटी खुशियां छोड़कर,
बस दिन-रात पैसे के पीछे,
हम क्यों जिये जा रहे हैं?

एक सवाल है,
आज स्वयं से ही,
कि हम क्या किये जा रहे हैं?
छोटी-छोटी ज़रूरतों के बड़ा बनाकर,
घर-परिवार, मित्रों-रिश्तेदारों से दूर,
जाने कौन सी खुशियों की तलाश में,
क्यों दिन रात पिसे जा रहे हैं?
चलो परिंदों से सीखें हम,
कुछ नया तो कुछ पुराना।
अपने छोटे-छोटे पंखों से,
उन्मुक्त गगन की ऊंचाइयों में तैरना,
न भरना दम्भ कोई,
आकर फिर गले धरती को लगाना।
एक-एक दाना चुनना बच्चों के लिए,
कल का कोई न ठिकाना।
तिनका-तिनका जोड़ बड़ी लगन से,
अपना घरोंदा बनाना।
टूट जाए गर एक डाली से तो
फिर शिद्दत से दूजी पे जा लगाना।
न बँधे रहना किसी सरहद में,
न किसी मजहब में बंध जाना।
कभी किसी मंदिर के शिखर पे,
तो कभी मस्जिद की मीनार पे चढ़ जाना।
चलो परिंदों से ही सीखें हम,
अब इंसान हो जाना।।

Friday 6 July 2018

पास जाकर देखिए

सुनी-सुनाई बातों का अनुसरण कर,
हीन भावनायुक्त छवि बना,
किसी व्यक्ति विशेष से,
दूरी बनाकर रखने से बेहतर है,
उसके पास जा कर देखिए,
कुछ अपने दिल की कहिये,
कुछ उसके दिल की सुनिए,
लोगों की कही बातों को अनसुना कर,
एक रास्ता दिल का चुनिए।

एक_शुरूआत


सदियों से स्थापित,
पितृसत्तात्मक सोच से प्रभावित,
अपनी बहन, बीवी या बेटी को,
हम अक्सर समझाते आये हैं,
ढंग के कपड़े पहने की,
सलीके से चलने की,
व देर रात बाहर न जाने जैसी,
कई नसीहतें सुनाते आये हैं।

मगर अब तो,
हालात बद से बद्तर हो चले हैं,
महिलाओं की इज़्ज़त से खेलने वाले,
हर गली नुक्कड़ पे मिलने लगे हैं।
औरत को वस्तु समझने वालों की
पहले भी कमी न थी,
मगर अब तो बूढ़ी औरतों और
दुधमुंही बच्चियों को भी दरिंदे नोचने लगे हैं।।

चलो मोमबत्तियां न जलाकर इस बार,
एक नई शुरूआत करते हैं।
अपनी बहन बेटियों को छोड़,
अपने बेटों से बात करते हैं।
अपनी बहनों से व्यवहार जो चाहते समाज से,
हर लड़की को देने की बात करते हैं।
राह चलती औरतों को समझे इंसान वे,
बस यही एक कोशिश दिल से आज करते हैं।।

©स्वर्ण दीप बोगल

ख्वाब देखते जाओ


ख्वाब देखते जाओ
तब भी,
जब खुली आँखों से भी,
ख्वाब देखने की इज़ाज़त न हो।
तब भी,
जब हर तरफ पहरा हो,
तिरस्कार भरी घूरती आँखों का साया,
हर तरफ गहरा हो।।

ख्वाब देखते जाओ,
तब भी,
जब मंज़िल की तरफ
बढ़ता हर कदम कठिन हो।
तब भी,
जब स्थितियां विपरीत हों,
आगे बढ़ने को,
जब अड़चने अंतहीन हों।।

क्योंकि ख्वाब देखना,
किसी कठिन सफर की तरफ,
मंज़िल को पाने की आस में,
लिया गया पहला कदम होता है।।

क्योंकि ख्वाब देखना,
विपरीत स्थितियों में भी,
अपनी समझ व विचारों पर,
किसी चट्टान की तरह अडिग रहने की,
पहली कोशिश होता है।।

©स्वर्ण दीप बोगल

नज़रिया


हम अक्सर समझते है कि
चीजों को देखने का हमारा नज़रिया,
एकदम भिन्न पर सबसे सही होता है।
मगर फिर भी कभी-कभी,
उन्हीं चीजों को दूसरों के नज़रिए से देखें,
तो हमारा इरादा बदल सकता है।।

हम अक्सर समझते हैं कि
बुद्धि व विवेक से लिया हमारा हर फैसला,
सबसे बढ़िया व सटीक होता है।
मगर फिर भी कभी-कभी,
हमारे पद या आयु में छोटों का मशवरा भी,
हमारा विवेकपूर्ण फैसला बदल सकता है।।

हम सभी अक्सर अपने फैसले,
किसी दूसरे पर थोप देते हैं,
बिना सोचे कि उसपर क्या प्रभाव पड़ता है।
मगर ऐसा करने से पहले स्वयं को,
उस व्यक्ति के स्थान पर रखकर देखने से,
शायद हमारा इरादा बदल सकता है।।

©स्वर्ण दीप बोगल

Sunday 24 June 2018

कविता और किसान


बड़े-बड़े बुद्धिजीवियों के समक्ष,
किसी कवि सम्मेलन में,
या सुनहरे आवरण वाली
किसी पुस्तक में कैद कविताओं में,
वर्णन हो सकता है,
महीनों के हाड़तोड़ परिश्रम के बाद,
फसल के सही दाम की मांग के चलते,
धरना प्रदर्शन करते किसान का।।

कठिन परिश्रम के उपरांत भी,
गरीबी में जीने को मजबूर,
किसान का दर्द बयाँ करती,
कोई बुलन्द कविता भी,
श्रोताओं की तालियों की गड़गड़ाहट,
या वाह-वाही के जोश के बीच,
अपनी बुलन्दी खोकर,
क्यों फ़ीकी सी हो जाती।।

अथाह परिश्रम के पश्चात भी,
अपने बच्चों को,
अच्छा जीवन न दे पाने को मजबूर,
किसान पर लिखी कविताएं,
अपने कवि के लिये,
अच्छी तालियां व प्रशंसा तो बटोरती हैं,
मगर किसान की दशा सुधारने में,
ज़्यादा कुछ नहीं कर पाती।।

हमारे आलीशान डाइनिंग टेबल्स पर,
सजे स्वादिष्ट भोजन के लिए,
बदन झुलसाती गर्मी व कड़कड़ाती सर्दी में,
निरंतर परिश्रम करते किसान का
जीवन कलमबद्ध करते कवि को,
एक ताली या वाहवाही से अधिक,
सफल तब प्रतीत होता जब उसकी कविता,
एक भी किसान की दशा बदल पाती।।

© स्वर्ण दीप बोगल

Sunday 17 June 2018

कविता - दीवारों से बात करना


कभी-कभी अच्छा होता है,
दीवारों से बात करना,
क्योंकि वो धीरज से सुनती हैं,
हमारे दिल की हर छोटी-बड़ी बात,
बिना थके लगातार,
और बिना किसी बहाने के।

कभी अच्छा होता है,
दीवारों से बात करना,
क्योंकि वे हमारे हृदय में दबी,
बचकानी बातों का,
कोमल अहसासों का,
सर्रेआम मज़ाक तो नहीं बनाती।

हाँ, अच्छा ही होता है,
दीवारों से बात करना,
क्योंकि उनकी चुप्पी के बावजूद,
एक सच्चे मित्र की तरह,
वो हमें अपने दिल की आवाज़ को,
सुनने का मौका तो देती हैं।

माना एक मार्गदर्शक की तरह,
कोई राय नहीं दे सकती हमें,
फिर भी बहुत अच्छा है
दीवारों से बात करना,
क्योंकि वे हमे अपनी बुद्धि व विवेक से,
निर्णय लेने का अधिकार तो देती हैं।

©स्वर्ण दीप बोगल

कविता - घोड़े गधे सब एक हुए।


प्रतिभा का अब खेल नहीं,
जोड़-तोड़ सरेआम हुए,
परिश्रम, निष्ठा का मोल नहीं अब,
क्यों कोई लगन से काम करे,
चाटुकारों का डंका बजता,
वो करें खुशामद, आराम करें,
सरकारी तन्त्र की क्या बात करें,
निजी क्षेत्र के बुरे हाल हुए,
निष्ठावानों को कौन पूछता,
जब घोड़े गधे सब एक हुए।

©स्वर्ण दीप बोगल

कविता - कवितायें ज़िंदा रहती हैं


कभी राह में भूख को तरसते,
किसी बेसहारा बच्चे की पीड़ा,
कभी मेहनताने की आस में,
धूप में पसीना बहाता कोई मज़दूर,
तो कभी अच्छी फसल की उम्मीद लगाए,
हाड़तोड़ परिश्रम करता किसान,
प्रभावित कर सकते हैं किसी कवि को,
इन सब का दर्द बयां करने में,
कविताओं के माध्यम से ।

और ये कवितायें ज़िंदा रहती हैं,
तब भी जब उनके कवि को,
भूख से बिलखते बेसहारा बच्चों की
पीड़ा दिखाई नहीं पड़ती।

ये कवितायें ज़िंदा रहती हैं,
तब भी जब उनके कवि को,
किसी मज़दूर की हाड़तोड़ मेहनत से
कोई अंतर महसूस नहीं होता।

ये कवितायें ज़िंदा रहती हैं,
तब भी जब उनके कवि को,
महीनों के परिश्रम के बाद
अच्छी फसल न होने पर दम तोड़ते,
किसान का दर्द महसूस नहीं होता।

©स्वर्ण दीप बोगल

कविता - वो बचपन


बड़ा सुंदर था वो बचपन,
जब बुरे को बुरा
व अच्छे को अच्छा कहने में,
सोचना नहीं पड़ता था।
बड़ा सुंदर था वो बचपन,
जब किसी की गलत बात पर,
फटाक से उत्तर देने के लिए,
सामने वाला कौन है,
ये सोचना नहीं पड़ता था।
बड़े सुहाना था वो बचपन,
जब बिना किसी मानसिक घुटन के,
दिल के जज़्बात रखने में,
बेबाकी से अपनी बात करने में,
कोई फर्क न पड़ता था।
बहुत याद आता है वो बचपन,
जब किसी के झूठ के पुलन्दे को
एकदम नकारने में,
और सच का साथ देने में,
हमें एक पल भी न लगता था।

© स्वर्ण दीप बोगल

कविता - तपती दोपहर


नाज़ुक हम इतने हो चले हैं कि
घर से दफ्तर का सफर करने में भी
खुद को गर्मी में असहज पाते हैं।
ए• सी• या कूलर की ठंडी हवा में बैठ,
बदन झुलसाती तपती गर्मी को,
बस अक्सर कोसते नज़र आते हैं।
तपती धूप की एक किरण को भी
जब हम सहन नहीं कर पाते हैं,
तो फिर उसी चिलचिलाती धूप में,
परिश्रम करते किसान, मज़दूर
या किसी अन्य कामगर के दर्द को,
क्या हम सच में समझ पाते हैं।
माना लाख दम भरें हम,
किसानों व मज़दूरों के समक्ष,
अपनी पढ़ाई व रहन-सहन का,
मगर खेत में पसीने से तरबतर किसान,
या तपती गर्मी में तारकोल बिछाते मज़दूरों के समक्ष,
क्या हम कहीं टिक भी पाते हैं?
©स्वर्ण दीप बोगल

Sunday 20 May 2018

चलो_स्वयं_से_सत्य_बोलते_हैं


इस झूठ के मायाजाल में,
झूठ का आडम्बर उतारकर,
माना कठिन होगा जीना,
फिर भी
किसी अन्य से तो न सही,
चलो एक दिन स्वयं से सत्य बोलते हैं।।
माना सहज न होगा
झूठ के मकड़जाल से अलग होकर,
अपनी सत्यता से परिचित होना,
फिर भी प्रयास करके,
एक दिन स्वंय को तौलते हैं।
चलो स्वयं से सत्य बोलते हैं।।
माना तनिक कठिन होगा,
आईने के समक्ष खड़े होकर,
अंदर दबे झूठ व नफरतों के बारे सोचना,
फिर भी प्रयत्न करके एक दिन,
मन की गाँठें खोलते हैं,
चलो स्वयं से सत्य बोलते हैं।।
अपनी जात, धर्म या प्रदेश भूल,
मन में दबे सभी पूर्वाग्रहों को छोड़,
एकाग्र मन से,
अपने हृदय पर हाथ धरकर,
एक दिन न्यायोचित बोलते हैं।
चलो स्वयं से सत्य बोलते हैं।।

©स्वर्ण दीप बोगल

माँ_की_याद


चलो अच्छा है कि
कम से कम इक रोज़ ही सही,
अपनी-अपनी व्यस्ततायें छोड़कर,
माँ के निःस्वार्थ समर्पण को
याद करने का,
आज हम सभी को
क्या सुंदर मिला बहाना है।।

हमारे हर सुख-दुख में,
हमारे प्रेम में, हमारे गुस्से में,
जो चट्टान की तरह सदा खड़ी रही,
बिना किसी आशा के,
आज उसी माँ के हृदय से लगकर,
धन्यवाद करने का,
मिला हमें बहाना है।।

अपने ही जीवन की भागदौड़ में,
उनके आजीवन त्याग को भुलाकर,
जाने-अनजाने में,
आहत उन्हें करते हैं हम अक्सर,
आज ऐसे हर अपराध की
क्षमा माँगने का माँ से,
मिला हमें बहाना है।।

©स्वर्ण दीप बोगल

सच्चा सम्मान


न तो कभी घूँघट से मिलता है,
न कभी किसी पर्दे से,
न किसी चरण स्पर्श से मिलता है,
न किसी खोखले दुआ, सलाम,
या किसी अन्य अभिवादन भर से,
ये इज़्ज़त, आदर या सच्चा सम्मान,
किसी सम्बोधन या आडम्बर का मोहताज नहीं,
ये तो बस हृदय का कोमल अहसास है,
जो हमारे सम्पूर्ण जीवन के प्रयासों
व आचरण से प्रभावित होकर,
स्वत: ही अन्तर्मन से निकलता है।

© स्वर्ण दीप बोगल

दौड़ ज़िंदगी


कभी इक दूजे से आगे,
निकल भागने की होड़ है जिंदगी।
तो कभी हार-जीत की सोचे बिना,
बस गतिमान रहने की दौड़ है जिंदगी।
कभी साज-सज्जा व ऐशोआराम,
कभी ग़ुरबत व गरीबी का दौर भी ज़िन्दगी।
किसी दूजे के वास्ते भी कुछ कर लेना चाहिए,
चाहे कितनी भी दौड़ है जिंदगी।
जैसे भी मिले ज़िंदादिली से जी जाए,
बस दो साँसों की तो डोर है जिंदगी।

- स्वर्ण दीप बोगल

मायने

नयी खरीदने के पश्चात भी,
हमारी पुरानी वस्तुएं,
अक्सर पड़ी रहती हैं,
धूल से सनी, घर के कोनों में,
बिना किसी इस्तेमाल के,
बस बेकार जगह घेरती,
महीने दर महीने, साल दर साल।
बिना ये सोचे कि
पुराने जूते, चप्पल,
कपड़े जैसी ये तुच्छ वस्तुएं,
कम्पकम्पाती सर्दी में,
या झुलसाती गर्मी में,
चीथड़े पहनकर व नंगे पैर काम करते,
किसी गरीब के लिए,
क्या मायने रखती हैं।

©स्वर्ण दीप बोगल

Friday 20 April 2018

मेरा परिचय

एक छोटे से निम्नवर्गीय परिवार में मेरा जन्म १० मार्च १९८० में हुआ।  किसी तरह पिता जी ने अपनी ज़रूरतों को मार कर तीन बच्चों का पालन-पोषण व् पढ़ाई करवाई। पढ़ाई-लिखाई को हमेशा गंभीरता से लेता था मगर हाँ बहुत ज्यादा समझ नहीं आयी व् किसी साधारण विद्यार्थी की तरह स्नातक की परीक्षा २००३ में उत्तीर्ण की।  २०१० से जम्मू विश्वविद्यालय में एक क्लर्क के तौर पर काम कर रहा हूँ। 
जब मैं छठी कक्षा में पढता था तब मैंने पहली बार एक-दो कवितायेँ लिखी थी जिनमे से एक डोगरी में तथा एक हिंदी में थी पर उसके बाद मैंने कभी कुछ नहीं लिखा। साहित्य में मेरी रूचि प्रेमचंद, ओम प्रकाश वाल्मीकि व पाश जैसे कुछ लेखकों  को पढ़ने के बाद हुई।  अंग्रेज़ी में मास्टर्स डिग्री करने के पश्चात पहले मैंने अंग्रेजी में लिखना शुरू किया और कुछ लघु कथाएं लिखी मगर अंग्रेजी शब्दावली में मेरी कमजोर पकड़ के चलते मैंने २०१७ से हिंदी में लिखना शुरू किया।
अभी तो लिखने की मेरी शुरुआत है और मुझे लिखने के साथ पढ़ने की बहुत आवश्यकता है ताकि शब्दों से खेलने की कला कुछ सीख पाऊं पर कम समय के चलते अभी तक ऐसा हो नहीं पा रहा है। 

स्वर्ण दीप बोगल 

लघु कथा - सच्चा सुख


रोहित एक बड़ी कम्पनी में एक बहुत बड़े पद पर कार्यरत था। दिनरात काम, न घर वालों के लिये समय, न यार-दोस्तों के लिए। बस पैसे कमाने की दौड़ में दिनरात पिसा रहता था। पत्नी से अक्सर झगड़े होते की बच्चों को समय नहीं देते, कहीं घुमाने नहीं ले जाए तो इसपर रोहित अक्सर कहता कि ये जो मैं जान खपाता हूँ तुम लोगों के सुख और आराम के लिए ही है।

एक दिन बातों-बातों में रोहित ने अपनी कम्पनी के एक निम्न कर्मचारी महेश से पूछा कि इतने कम वेतन में तुम घर का गुजारा कैसे करते हो जबकि तुम तो ओवरटाइम भी नहीं करते? तो उसने जवाब दिया कि मैं अपना कीमती समय अपने परिवार को देता हूँ। सुविधाएं चाहे कुछ कम हों पर छोटे-छोटे पलों को परिवार के साथ जीने का जो सुख मिलता है वो पैसों की गर्मी में कहां। महेश की बात सुनकर रोहित आगे बढ़ गया मगर वो बात उसके दिमाग में घूम रही थी और वो सोच रहा था कि वो किस सुख की तलाश में जीवन व्यर्थ कर रहा है।

- स्वर्ण दीप बोगल 

कविता - जनता की आवाज़


गर्मी की तपती दोपहरों में
और सर्दी की ठंडी रातों में,
गाँव-गाँव और शहर-शहर,
तुम जिन्हें पुकारा करते थे
कि एक बार तो मुझे चुनो।
अब जनता वही पुकार रही,
उस जनता की आवाज़ सुनो।

जिनके वोटों की चाहत में,
कुछ भी करने की कहते थे।
जिनके नखरों की खातिर तुम,
बस मारे-मारे फिरते थे।
अब कुर्सी पे विराजमान हो,
उन सब की तुम आवाज़ बनो,
हाँ, जनता की आवाज़ सुनो।।

- स्वर्ण दीप बोगल 

कविता - मेरा स्वाभिमान


आसमान से ऊँचा तो न सही,
फिर भी ऊँचा है मेरा स्वाभिमान,
जो बड़ो की इज़्ज़त करना जानता है,
सहकर्मियों के साथ मिलकर
मिट्टी से मिट्टी होना जानता है,
ये ग़ल्ती पर तो चुपचाप सब सह लेता है,
बस कोई ओछी बात नहीं सुनता।
नहीं सुनता कोई भी प्रश्न,
बरसों की मेहनत से निर्मित अपने चरित्र पर।
ये मेरा स्वाभिमान ही है
जो मुझे मेहनत व निष्ठा से
कर्म करने पर मजबूर करने के साथ ही,
अपने हक़ों की लड़ाई लड़ने का
भरपूर उत्साह भी देता है।।

- स्वर्ण दीप बोगल 

लघु कथा - चरित्रहीन


नंदिनी के पति एक एक्सीडेंट में कुछ समय पहले गुज़र गए। कोई सरकारी नौकरी नहीं थी तो भरी जवानी में छोटे-छोटे बच्चों का बोझ नंदिनी पर आ गया।

वो बहुत पढ़ी-लिखी भी नहीं थी सो बहुत दिन काम न मिलने पर न चाहते हुए भी घर की मजबूरी देखते उसने एक क्लब में बार टेंडर की नौकरी कर ली।

इस पर मोहल्ले की नुक्कड़ पे बैठने वाले निठल्लों ने नंदिनी के चरित्र पर टीका-टिप्पणी शुरू कर दी और एक दिन रास्ता रोक कर उसे बोलने लगे कि उसे ऐसा काम शोभा नहीं देता। इसपर नंदिनी ने पलट कर कहा कि मेहनत से काम करके अपने बच्चों का पेट पाल रही हूँ उस पर प्रश्न करने वाले तुम लोग होते कौन हो? वैसे भी मेरे चरित्र पर प्रश्न करने का अधिकार तुम्हें किसने दिया? 

- स्वर्ण दीप बोगल 

Saturday 14 April 2018

कविता - जानवर या इंसान

जानवर से इंसान होने का सफर,
जो तय किया था हमने,
लाखों वर्षों के अंतराल के बाद,
वो मानसिक तौर पर न होकर,
शायद सिर्फ शारिरिक ही होगा।।

वरना फूल सी नन्ही बच्चियों को देख,
जिसके भी कठोर हृदय में,
प्रेम की कोमल भावना के स्थान पर,
हैवानियत व हवस तांडव करे
वो इंसानियत को शर्मसार करने वाला
वहशी जानवर ही  होगा।।

यौन उत्पीड़न के नाम से भी अनजान,
फूल सी असहयाय बच्ची का
दर्दनाक क्रंदन सुनकर भी,
दर्द भरी पुकार सुनकर भी,
जिसका कलेजा नहीं फटा,
वो तो अवश्य ही इंसान नहीं,
वहशी जानवर ही  होगा।।

© स्वर्ण दीप बोगल

Sunday 8 April 2018

कविता

सुंदरता

मैं भलीभांति समझता हूँ
दृष्टिहीनों के जीवन की चुनौतियों को,
उनकी बेरंग दुनिया की सच्चाई को,
मगर फिर भी
कभी-कभी सुंदर प्रतीत होती है,
दृष्टिहीनों की अंधेरी दुनिया भी,
क्योंकि उनके लिये
किसी मनुष्य की सुंदरता का पैमाना,
तीखे नैन-नक्श या
गौरे बदन की भ्रामकता न होकर,
किसी का सुंदर मन होता है।
क्योंकि वे अपनी मन की आँखों से,
शारीरिक सुंदरता के स्थान पर,
मानसिक सुंदरता को पहचान पाते हैं,
जो हम लेखों में, कविताओं में,
व्याख्यानों में, कागजों, किताब में,
अक्सर पढ़कर भी समझ नहीं पाए।।


- स्वर्ण_दीप_बोगल

Monday 2 April 2018

कविता - मैं गृहिणी कहलाती हूँ।


रोज़ सवेरे त्याग के बिस्तर,
सबसे पहले उठ जाती हूँ,
चाय की प्याली लिए सँग मैं,
बारी-बारी से सबको जगाती हूँ।
बंटी की बोतल, मुन्नी का बस्ता,
पति का टिफ़िन, ससुरजी की दवा,
कपड़ों की इस्तरी और साफ-सफाई,
हर काज को मैं सुलझाती हूँ,
हाँ! घर में निठल्ले रहने वाली,
मैं गृहिणी कहलाती हूँ।।

काम सुबह का खत्म हुआ न,
दोपहर का सामने मैं पाती हूँ,
ये तो दिनचर्या जीवन की,
फुर्सत ही कहाँ मैं पाती हूँ।
सुबह से शाम की भागादौड़ी में,
खुद कहीं गुम हो जाती हूँ।
इसमें भी खुश रहती मैं,
पर सुन आरोप  तड़प मैं जाती हूँ,
हाँ! घर में निठल्ले रहने वाली,
मैं गृहिणी कहलाती हूँ।।

© बोगल सृजन

Friday 30 March 2018

अपने_भीतर


क्योंकि झूठ व झूठों का बाज़ार गर्म है,
सत्यवक्ता असहाय महसूस कर रहे हैं
व सच साबित करना
आज इतना सरल कार्य नहीं,
वरना, दुबके रहना अपने ही भीतर,
भला किसे अच्छा लगता है?

वो लोग बड़े शौक से
मुझे पागल भी कह सकते हैं
जिने मेरे इस अहसास से
कोई इत्तफ़ाक़ नहीं होगा, मगर
बिना बात दुबके रहना अपने ही भीतर,
भला किसे अच्छा लगता है?

कइयों के स्वर विद्रोही हैं,
व कईयों ने हवा का रुख पहचान लिया,
मगर कई अभी भी बैठे हैं लगन से,
बेहतर समय की प्रतीक्षा में,
वरना, दुबके रहना अपने ही भीतर,
भला किसे अच्छा लगता है?

कुछ_लोग

जब कभी हमें असहाय प्रतीत हो,
हम कहीं अकेले पड़ जाए,
तो याद आते हैं कुछ लोग।
खुशियां जो कभी मिली हमें,
उनको सांझा करने के लिए भी,
याद आते हैं कुछ लोग।
हमारे दिलों में स्थान इक खास,
रखते हैं ये खास 'कुछ लोग'।

हर किसी के जीवन में,
होते हैं खास कुछ लोग।
कभी भाई, कभी बहन,
कभी मित्र या कोई सखा,
कभी अपने तो कभी पराए,
कोई भी हो सकते हैं ये 'कुछ लोग'।
हर बार धोखा देने का कार्य ही,
कहाँ करते हैं कुछ लोग।

Sunday 25 March 2018

काश! #कुछ_हालात_बदलें।

ये आलम बदले, माहौल बदले,
कोई किसी को हिन्दू न समझे,
न किसी को मुसलमान समझे,
नफ़रतें भुलाकर प्रेम से हम,
इक-दूजे को बस इंसान समझें,
काश! ऐसे कुछ हालात बदलें।

सड़क किनारे कूड़े के ढेर से,
खाली बोतल, प्लास्टिक छांटते,
नन्हे-नन्हे बच्चों के हालात बदलें,
गरीबी-भुखमरी व चोरी का हाल सुनाते,
कभी तो ये अखबार बदलें।
काश! ऐसे कुछ हालात बदलें।

जात-पात का भेद भुलाएं,
रंग-रूप, भेष-भूषा व ऊँच-नीच छोड़,
सबको जब एक समान समझें,
थोड़ा मैं बदलूँ, थोड़ा सा आप बदलें,
शायद तब ही देश समाज बदले।
काश! ऐसे कुछ हालात बदलें।

- बोगल_सृजन

Friday 23 March 2018

कविता - शहीदों_को_नमन


कितने बसंत हैं बीत चुके,
फिर भी हमसब के हृदयों में,
हाँ, नाम तुम्हारे बाकी हैं।
हो इस दिल में या उस दिल में,
पर इंक़लाब की थी जो जगाई,
वो आग कहीं तो बाकी है।।

जिस आयु में हम पापा से,
बस फरमाइश करते थे,
उस किशोर अवस्था में तुम
पुलिस के डंडे झेल गये।
प्रणय निवेदनों की चिंता में,
जब दर-दर थे हम घूम रहे,
आज़ादी के सपने की खातिर,
तुम फाँसी का फंदा चूम गए।।

अपने प्राणों को देश की खातिर,
हँसते-हँसते तुम वार गये।
स्वतंत्रता पाने की ज़िद की खातिर,
अपना सर्वस्व तुम हार गये।
क्या हम कभी चुका पाएंगे,
जो कर्ज़ तुम्हारे बाकी हैं।
फ़र्ज़ निभा तुम विदा हो गए,
कुछ फ़र्ज़ हमारे बाकी हैं।।

- बोगल सृजन

Wednesday 21 March 2018

कविता - कवि बनने के लिए

एक कवि बनने के लिये,
भारी-भरकम शब्दावली संग,
लयबद्ध तरीके से,
शब्द कुछ खास चुनने के लिए,
कुछ वक्त तो लगता है।
प्यार के उस ख़ास अहसास को,
छंद को या अलंकार को,
हृदय की कोमल सम्वेदनाओं को,
कागज़ पर उतारने के लिए,
कुछ वक्त तो लगता है।।

मगर बिना छंद, अलंकार के,
साधारण जनमानस के दुख-दर्द को,
उनकी समस्याओं व चुनोतियों को,
महसूस कर शब्दों में पिरोकर,
जलधारा सा प्रवाहित करने के लिये,
बस मानवीय अहसास लगता है।
कोरी कल्पनाओं को छोड़,
बस समाज से प्रेरित होकर,
जन-जन के अधिकारों की बात करती,
ईमानदारी व कर्तव्यनिष्ठा की बात करती,
ऐसी कोई कविता लिखने के लिए,
कहाँ कुछ खास लगता है,
हाँ, बस मानवीय अहसास लगता है।
कविता के लिए कहां कुछ खास लगता है।।

#बोगल_सृजन

कविता - अखबार का वो पन्ना

कई रातों की अनिद्रा
व छटपटाहट के बाद भी,
अपनी कविता में पिरोने के लिये,
कुछ शब्द जब मैं नहीं ढूँढ पाया,
मध्यमवर्गीय दिनचर्या से हटकर,
पेज 3 के मसालेदार समाचार छोड़,
मैंने किसानों का दर्द बयां करता,
अखबार का एक पन्ना उठाया।।

कर्ज़ के बोझ में जो डूबता जा रहा,
सल्फास को जिसने अपना सहारा बनाया।
देश के अन्नदाता की स्थिति जब पढ़ी मैंने,
तो दर्द से निकली अश्रुधारा मैं रोक नहीं पाया।
महंगे बीज व खाद का बोझ से बेहाल जो,
सूखे-बाढ़ के आतंक ने जिसे डराया।
अच्छी फसल पर भी पूरे पैसे कहाँ मिलते,
तभी तो सँग परिवार आज सड़कों पर आया।।

कटे-फ़टे पांव लिए मीलों का सफर करके,
हारकर जब किसान सड़कों पर उतर आया,
असंवेदनशीलता की पराकाष्ठा लाँघकर,
कइयों ने तब भी उनपर सवालिया निशान लगाया।
किसानों की वेदना, तड़प व मजबूरी न दिखकर,
किसी को इसमें कांग्रेस का एजेंडा,
तो किसी को लाल झंडा नज़र आया।
हाँ, कविता के शब्द ढूंढने को मैंने,
अखबार का जब वो पन्ना था उठाया।।

- बोगल सृजन

Sunday 11 March 2018

कविता - वह अबोध सा बालक

वह अबोध सा बालक,
जिसके मुखमण्डल पर भूख की पीड़ा,
साफ तौर नज़र आ रही थी।
और जिसकी आयु में मुझे स्वंय
निवाला तोड़ना तक नहीं आता था।
बस माँ-बाप को नाज़-नखरे दिखाकर मैं,
जब बस्ता उठाकर बस स्कूल को जाता था। 

सुबह-सबेरे कम्पकम्पाती सर्दी में,
जब गाड़ी ब्लोअर के बगैर चलाने में,
मेरा शरीर ठिठुरता जा रहा था।
वह अबोध सा बालक,
पीठ पे कटा-फटा झौला टांगे,
कचरे के ढेर से कुछ निकाल,
भूखे खुद्दार पेट का जुगाड़ लगा रहा था।।

उसकी आयु में जब मैं अपनी मम्मी को,
अपने बैग का बोझ थमा रहा था,
अध्यापिका को सबक सुना रहा था,
और वह अबोध सा बालक,
अपने नन्हे कन्धों पर शायद,
परिवार की जिम्मेदारी का बोझ उठाए,
अपना मासूम बचपन गंवा रहा था।।

मेरे राष्ट्र का सुंदर भविष्य,
जो सकता था किसी प्रयोगशाला में,
वो कहाँ-कहाँ धक्के खा रहा है।
बहुत पीड़ा हुई ये देखकर,
वह अबोध सा बालक,
कचरे में बचपन गंवा रहा है।।

कविता - घर-घर की कहानी

इक पल है यहां चमक ख़ुशी की,
दूजे पल आँखों में पानी है,
खुशियां तो आनी-जानी है,
जीवन तो बहता पानी है,
क्या सुनाऊँ बात किसी की,
घर-घर की यही कहानी है। 

माँ-बाबा के प्रेम की खुशबु,
भाई-बहन का यहां प्यार है,
आपस में छोटी-मोटी,
नोकझोंक तो आनी-जानी है,
क्या सुनाऊँ बात किसी की,
घर-घर की यही कहानी है। 

एकल परिवारों का समय है आया,
रिश्तों-नातों की टूटती तानी है,
अपनों से जब दूर हो रहे,
क्या बचेंगे जज़्बात इंसानी हैं,
क्या सुनाऊँ बात किसी की,
घर-घर की यही कहानी है। 

- बोगल सृजन 

Thursday 8 March 2018

नमन

#नमन

माँ की ममता के आगे, 
है फीका कुल संसार।
बहन के स्नेह भरे नाते सी,
न दूजी कोई मिसाल।
पत्नी तो जीवन संगिनी है,
बिन उसके जीवन बेकार।
और बेटी की क्या बात बताऊँ,
वो तो जीवन आधार।
तू मित्र, सखी या सहकर्मी,
जिस रूप की चाहे मैं बात करूं,
नारी तेरी रूप को नमन व आभार।।

कविता - रहने दो मुझे इंसान

#रहने_दो_मुझे_इंसान 

बस नहीं चाहिए और मुझे,

देवी का जो दिया है स्थान।
बस नहीं चाहिए अब और मुझे,
कोरी बातें और कोरा ज्ञान।
राह किसी पे, मोड़ किसी पे,
कार्यक्षेत्र हो या शिक्षा संस्थान,
भद्दे शब्द और टिप्पणियां न चाहूँ,
चाहूँ बस अपना सम्मान,
न चाहूँ अब देवी का स्थान,
बस रहने दो मुझे इंसान।।

आज हूँ जो कुछ,

मेरे लिए न था आसान।
वर्षों के संघर्ष को अपने,
कैसे लगने दूँ आज विराम।
बहन किसी की, बेटी किसी की,
पर अपना भी रखती हूँ स्थान,
बाज़ारों में बिकने वाला, 
नहीं हूँ मैं कोई सामान,
न चाहूँ देवी का दर्जा,
बस रहने दो मुझे इंसान।।

चूल्हे-चौंके को छोड़ निकलना,

मेरे लिए आसान न था
गृहस्थी के साथ चलाना,
कार्यक्षेत्र आसान न था,
इतने संघर्षों के बनी हमारी,
कम न होने दूँगी मैं पहचान।
अब न सुनूंगी शब्द एक भी,
कहा गया जो अबला जान
न चाहूँ अब देवी का स्थान,
बस रहने दो मुझे इंसान।।

#बोगल_सृजन 











Wednesday 7 March 2018

कविता - मेरी माँ

वैसे तो बहुत हैं लोग मेरे खास,
जिनके लिए हृदय में हैं मधुर अहसास,
मगर फिर भी त्याग, समर्पण,
निःस्वार्थ प्रेम और दया की प्रतिमा,
मेरी माँ पर वार दूँ मैं अपनी हर साँस,
उनके प्रेम के आगे फ़ीका हर अहसास।।

उनकी आँखों ने नींद न देखी,
मेरे लिये भूली बैठी वो भूख और प्यास,
अपने सुख-दुख वो कहां सोचती,
मेरे सुख, आराम व खुशी की है उसे सदा आस,
मेरी माँ पर वार दूँ मैं अपनी हर साँस,
उनके प्रेम के आगे फ़ीका हर अहसास।।

मेरे प्रेम में खुद को भूली,भूली हर इक बात,
न शिकन, न कोई चिंता उनको दिन और रात।
मुँह से मैं बोलूँ न बोलूँ, पर जानूँ हर इक बात,
तेरा कर्ज़ चुका पाऊं माँ, मेरी न औकात।
मेरी माँ पर वार दूँ मैं अपनी हर इक साँस,
उनके प्रेम के आगे फ़ीका हर अहसास।।

© बोगल सृजन 

Sunday 4 March 2018

कविता - अभी-अभी

अभी-अभी मेरे मन में इक विचार आया है,
जैसे मेरे लहू में कोई उबाल आया है,
बाकी कुल दुनिया को छोड़,
कर्ज़ कुछ माँ-बाप के भी याद करलें,
अभी-अभी मेरे मन में ये ख्याल आया है,
जैसे मेरे लहू में कोई उबाल आया है।।

बचपन में किसी अनहोनी ज़िद के लिए,
जब भी मैं रोया चिल्लाया था,
अपनी हैसियत की चादर को लांघ कैसे,
माँ-बाबा ने हर बार मुझे वो सब दिलवाया था,
अभी-अभी मेरे मन में ये ख्याल आया है,
जैसे मेरे लहू में कोई उबाल आया है।।

वो माँ का मेरे हर बार रूठने पर मनाना,
अर्धनिद्रा में भी मुझे खाना खिलाना।
खुद पुराने व मुझे नए-नए कपड़े दिलवाना,
वो पापा का पाई-पाई मेरी शिक्षा पे लुटाना।
अभी-अभी मुझे फिर ये याद आया है,
जैसे मेरे लहू में कोई उबाल आया है।।

माँ-बाबा तो फ़र्ज़ निभा बैठे हैं,
मेरे हिस्से के तो अभी बाकी हैं,
कहाँ मैं कर्ज़ चुका पायउँगा मगर फिर भी
चंद लम्हें खुशियों के लौटा पाऊं अगर,
ये ख्वाहिश तो अभी बाकी है
अभी-अभी मेरे मन में ये ख्याल आया है,
जैसे मेरे लहू में कोई उबाल आया है।।

#बोगल_सृजन

Thursday 1 March 2018

कविता - प्रेम का गुलाल

सुना है मैंने बचपन से ही,
होली है त्यौहार प्यार का,
फ़िज़ा महकाते रंग-बिरंगे,
फाल्गुनी पुष्पों की बहार का,
जाती-धर्म का जो भेद न माने,
होली उत्सव है प्रेम भरे गुलाल का।

लिया है प्रण मैने खुद से एक कमाल,
कि होली खेलूंगा मैं तभी इस बार,
उड़ेगा बैंगनी, हरा, नीला और रंग लाल,
जब जात-धर्म का भेद भूलाकर,
मेरा कोई प्रिय गैर हिन्दू भाई,
आकर मुझको लगाएगा गुलाल।।

Monday 26 February 2018

कविता - नए शहर की वो पहली रात

कविता - नए शहर की वो पहली रात

गाँव की भुखमरी ने 
जब किया था परेशान,
रोज़ खाली पेट सोना 
पड़ती थी कोई आदत जान।
अनजान शहर से जब हुई मुलाकात,
याद है मुझको आज भी,
नए शहर की वो पहली रात।।

बिना टिकट रेल से जब मैं,
शहर के स्टेशन था पहुंचा,
टीटी साहब ने भी गरीबी पहचान,
मुझको था धर दबौचा,
किसी तरह मिन्नतों से फिर बनी बात,
याद है मुझको आज भी,
नए शहर की वो पहली रात।।

काम की तलाश में घर से बेघर हुआ,
पूरा घर-परिवार छोड़कर मैं दर-दर फिरा।
थी कड़ाके की सर्दी और भूख भी विकराल,
मैं किसान था उस रात बड़ा बदहाल,
याद है मुझको आज भी,
नए शहर की वो पहली रात।।

खेती छोड़ अब शहर में मज़दूरी कर रहा हूँ,
ज़्यादा तो नहीं पर थोड़ा ही सही,
अपने परिवारजन का पेट तो भर रहा हूँ।
खेत-खलिहानों की आज़ादी वाली,
फैक्ट्री की मजदूरी में कहां है बात,
तभी याद आती है मुझको आज भी,
नए शहर की वो पहली रात।।

- बोगल सृजन

Friday 2 February 2018

चाय की चुस्कियाँ और देश के हालात पर चर्चा

चाय की चुस्कियाँ और देश के हालात पर चर्चा

चाय की चुस्कियाँ लेते किसी महफिल में,
चर्चाएँ देश के हालातों पर अक्सर होती हैं,
जब देश की प्रगति में बाधा बताया जाता है,
कालाबाजारी करते राशन डिपो वाले को,
या किसी घूंसखोर सरकारी कर्मचारी को।
इसमें तो कुछ गलत नहीं है मगर
उसी महफ़िल लौटते वक्त उनमें से कोई एक जब,
घर के किसी कार्यक्रम के लिए उसी राशन डिपो से,
सस्ती चीनी खरीदने के जुगाड़ की बात करता है,
या कोई दूसरा ट्रैफिक सिग्नल तोड़ने के बाद
500 के जुर्माने की जगह 100 की घूंस थमाता है,
क्या तब राष्ट्र का विकास रथ रुक नहीं जाता है?

चाय की चुस्कियाँ लेते किसी महफिल में,
चर्चाएँ देश के हालातों पर जब होती हैं,
तो देश के नाम पर कलंक बताया जाता है,
महिलाओं के लिए असुरक्षित होते महानगरों को
उनपर नित-दिन हो रहे यौन हमलों को।
मगर उसी महफ़िल से निकलते हुए राह में,
किसी नुक्कड़ पे कॉलेज से लौटती छात्रा या
अपने काम से घर लौटती किसी महिला के,
वस्त्रों पर जब टीका टिप्पणी की जाती है,
या उनपर फब्तियां कसी जाती हैं,
तब क्यों सहसा ही देश का कलंक बदलकर,
सीने पर सजे किसी मैडल सा प्रतीत होता है।।

चाय की चुस्कियाँ लेते किसी महफिल में,
चर्चाएँ देश के हालातों पर जब भी होती हैं,
तो जात-पात व धर्म के नाम पर रोज़ हो रही,
मार-काट, दंगों व आगजनी को,
राष्ट्र की एकता व अखण्डता के लिए
बहुत बड़ा खतरा बताया जाता है।
मगर असल जिंदगी में सभी धर्मों द्वारा बताया,
मानवता, प्रेम व सौहार्द का मार्ग छोड़,
मन्दिर-मस्जिद की राजनीति में आकर,
ऊँच-नीच की घृणित विचारधारा जतलाकर,
जातिसूचक शब्दों से दूसरों को नीचा दिखाकर,
फिर कैसे राष्ट्र सच में अखण्ड बन पाता है।।

इसलिए चाय की चुस्कियाँ लेते किसी महफिल में,
चर्चा देश के हालातों पर गर फिर से हो जाये,
तो देश की समस्याओं के मद्देनजर रखते हुए
पहले एक नज़र स्वंय पर भी फेर ली जाए,
ताकि किसी और को बदलने से पहले,
खामियां दूर कर खुद को ही बदला जाए।
रोज़ राह में अपमान का घूंट पीती,
अपनी बहन बेटियों के सम्मानित जीवन हेतु,
सम्मान दूसरों की बहन, बेटियों को दिया जाए।
इंसानियत का पाठ पढ़ाते धर्मों के प्रतीक,
किसी मन्दिर, मस्जिद या गुरुद्वारे की रक्षा से पहले,
पहले सिर्फ इंसानियत की रक्षा तो की जाए।।

#बोगल_सृजन

Saturday 20 January 2018

अक्ल बड़ी या भैंस

अक्ल बड़ी या भैंस

अक्ल बड़ी या भैंस जब भी सुनाया जाता है,
एक प्रश्न मेरे मन में आ टकराता है।
कि लगातार हमें दूध उपलब्ध कराती,
क्यों बेचारी भैंस पर प्रश्न उठाया जाता है।

मान लिया कि अक्ल होती नहीं
अन्य किसी पशु की तरह भैंस के पास,
पर प्रश्न तो ये भी निकल आता है,
कि भला कौन जानवर कॉलेज में पढ़ने जाता है।

गर बात होती पशुओं के बल या किसी गुण की,
तो फिर भी कुछ समझ में आता है,
मगर अक्ल के मुहावरे में कैसे घुसी भैंस,
ये तो सिर के ऊपर से ही निकल जाता है।


#बोगल_सृजन

Tuesday 16 January 2018

मैं कैसे भूल जाऊँ

मैं कैसे भूल जाऊँ

कभी-कभी सोचता हूँ ऐसा मैं,
कि खाओ-पियो और ऐश करो की संस्कृति,
जो आज हावी है लगभग हर किसी पर
उसी पर चलते हुए मैं भी, 
न परवाह करूँ औरों के दुख-तकलीफों की,
व अपने घर-परिवार तक सीमित रहते हुए,
बस अपने ही काम से काम रखूँ।

कभी-कभी सोचता हूँ ऐसा मैं,
कि हाड़तोड़ परिश्रम के उपरांत भी
आधे पेट भोजन प्राप्त करते किसान को छोड़,
किसी महंगे रेस्तराँ में खाना खाने
व शॉपिंग मॉल्स से खरीददारी करने के बाद,
किसी गरीब को एक सिक्का देकर बस,
अपनी इंसानियत का फर्ज मैं भी निभा लूँ।

मगर इस निष्ठुरता से पेश आने की,
गवाही देता ही नहीं ज़मीर,
क्योंकि जिस तरह से एक बहशी,
स्वभाव से मजबूर वहशत फैलाना भूलता नहीं,
एक पक्षी मदमस्त नीले आकाश में,
पंख फैलाकर उड़ना भूलता नहीं,
तो इंसान होकर मैं इंसानियत कैसे भूल जाऊँ।

आजतक सुने हर एक धर्म-ग्रन्थ ने,
सन्त, ऋषि-मुनि या पीर-पैगम्बरों ने,
और हमारे माँ-बाप व शिक्षकों ने,
जो बचपन से हमें सिखाया है, 
हर इंसान से प्रेम व भाईचारे से रहना,
हर कमजोर और ज़रूरतमंद की मदद करना,
ये पढ़ी-पढ़ाई, रटी-रटाई बातें मैं कैसे भूल जाऊँ।

बोगल सृजन 

Wednesday 10 January 2018

बस_एक_दिन

बस_एक_दिन

ज़रा सोचिए अगर बस एक दिन,
दुनिया भर के सब  मेहनतकश,
किसान, मज़दूर व अन्य कामगर,
जो मगन रहते हैं दिन-रात,
पूरी निष्ठा से अपने-अपने कामों में,
हाड़तोड़ परिश्रम के उपरांत जो कमाते हैं,
परिवार के लिए दो वक्त की रोटी
व मेहनत के गुरूर से उपजी इज़्ज़त।
वो सब लोग, 
पेट की आग की परवाह न करते हुए,
मना कर दें काम करने से,
अपने-अपने उन मालिकों को, 
जिन्होंने मेहनत के नाम पर सीखा है बस,
पुरखों की अर्जित पूंजी से मुनाफा कमाना।
अगर, 
बस एक दिन पहिये जाम हो जाऐं,
छोटे-बड़े सभी कल कारखानों के,
पूरी दुनिया के इस कौने से उस कौने तक,
जो निर्माण करते हैं सूई से हवाई जहाज तक का।
दुनिया भर की स्थापित अर्थव्यवस्थायों की,
सच में चूलें हिल जाएं,
दो कौड़ी के दिखने वाले कामगार,
अगर सच में बस एक दिन काम करने न आएं।
शायद तब ही महलों में रहकर, 
किसान व मज़दूर के बारे फैसले लेने वालों को,
ज़्यादा नहीं पर कुछ तो उनकी कीमत समझ आये।।

© बोगल_सृजन

Sunday 7 January 2018

मेहनत_ईमानदारी_के_किस्से

मेहनत_ईमानदारी_के_किस्से

माना कर्म को ही धर्म कहते,
व मेहनत-ईमानदारी की बात करते,
बहुत से किस्से कहानियाँ,
बचपन से ही पढ़े होंगे हमने,
मगर दिनभर खून-पसीना बहाने के बाद,
आधे-पेट भोजन से गुज़ारा करते,
भूमिहीन किसान व मज़दूर की दशा देख,
सब किस्से-कहानियाँ हवा होते दीखते हैं।

वैसे कहने को तो बहुत सम्मान मिलता है,
बदन झुलसाती गर्मी व हड्डियाँ सुन्न करती सर्दी में भी,
हर प्रकार के अनाज, फल व सब्जियां उगाते,
हमारे देश के अन्नदाता किसान को,
मगर महीनों की हाड़तोड़ मेहनत के बाद भी,
लगातार बढ़ते कर्ज़ के बोझ से त्रस्त हो उनको,
जब सल्फास चाटते या फाँसी पर झूलते देखते हैं,
परिश्रम के सब किस्से-कहानियाँ हवा होते दीखते हैं।

वैसे तो बड़ी-बड़ी गगनचुंबी ईमारतें,
सड़कें, पुल या कोई शॉपिंग मॉल,
जो बनते हैं मज़दूर की दिनरात की मेहनत से,
मगर उनकी ही मेहनत व कारीगरी से तैयार,
चमचमाते किसी शॉपिंग मॉल या भवन में,
उसी गरीब मज़दूर को जब घुसने नहीं दिया जाता,
तो मेहनत-ईमानदारी का महिमामंडन करते,
सब किस्से-कहानियाँ हवा होते दीखते हैं।

वैसे तो दुनिया के ऐशोआराम के लिए,
छोटी सी चीज़ से लेकर हवाई जहाज तक,
कारखानों में तैयार किया जाता है,
मज़दूरों के अथाह परिश्रम व कुशलता के द्वारा ही।
मगर जब दिन-रात के परिश्रम के पश्चात भी,
उन्हीं द्वारा निर्मित वस्तुओं का इस्तेमाल तो दूर, 
जब छूने तक कि हैसियत न हो तो,
मेहनत के सब किस्से-कहानियाँ हवा होते दीखते हैं।

#बोगल_सृजन